________________ स्वाध्याय से ज्ञान-प्रतिबन्धक कर्मों की निर्जरा होती है। सूत्रों के अध्ययन से, मननादि से जीवों के प्रति समय असंख्यात गुणित श्रेणी से पूर्वसंचित कमों की निर्जरा बताई गई। 107 यह निर्जरा श्रोता व व्याख्याता दोनों को होती है। 148 स्वाध्याय से भावसंवर (बुरे भावों का रुकना) नया नया संवेग (धर्म में श्रद्धा) रत्न-त्रय में निश्चलता, तप, भावना (गुप्तियों में तत्परता) आदि गुण उत्पन्न होते हैं। 141 स्वाध्याय का फल प्रशस्ताध्यवसाय, 15deg अतिचार विशुद्धि तता बुद्धिनिर्मलता आदि भी हैं। साधक शास्त्रों का जैसे-जैसे अवगाहन करता है, वैसे, वैसे उसे अधिकाधिक परमानन्द का अनुभव होता जाता है। 151 स्वाध्याय से तपस्या में वृद्धि तदनुरूप निर्जरा में वृद्धि, रत्नत्रय में वृद्धि आदि अनेक महनीय फल हैं जिससे साधना-मार्ग में स्वाध्याय-योग की महती उपयोगिता स्वतः सिद्ध हो जाती है। उपाचार्य एवं अध्यक्ष जैन दर्शन विभाग श्री ला.ब.शा राष्ट्रीय विद्यापीठ (मान्यविश्वविद्यालय) करवारिया, सराय नई दिल्ली-१६ * * * * * 147. धवला- 9.4.1.1 148. धवला 9.5.5.50, तिलोयप 1.37, झै. सि, को. 4.525 / 149. भगवती आरा 100 150. सवार्थ 9.25, राजवार्तिक- 9.25. 6, 151. भगवती आरा. 105, 106. (97) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org