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वाचनादि के पात्र सिद्धान्त का, आगम - रहस्य का ज्ञान गुणवान व योग्य पात्र देख कर ही करना उचित है। आचार्य हरिभद्रसूरि लिखते हैं कि जिस प्रकार कच्चे घड़े में भरा जल उस घड़े को ही विनष्ट कर देता है, वैसे ही गुणरहित व्यक्ति को दिया हुआ सिद्धान्त - रहस्य उस अल्पा- धार शिष्य का ही विनाश करता है।
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स्वाध्याय करने वाले शिष्य के गुरु के प्रति कर्तव्य - अकर्तव्य आदि के विषय में तथा योग्य व अयोग्य शिष्य के स्वरूप के विषय में जैन शास्त्रों में विस्तृत निरूपण प्राप्त होता है ।
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पृच्छना संशय का उच्छेद करने या निश्चित बल (महत्त्व ) को पुष्ट करने हेतु प्रश्न करना 'पृच्छना' है। शास्त्रों के संदिग्ध अर्थ को किसी दूसरे से पूछना, सत्पथ की ओर बढ़ने हेतु मोक्षादिमार्ग का स्वरूप निश्चित करना, संशय-निवारणार्थ प्रश्न या जिज्ञासा करना। पढ़ते समय; या पढ़ने के बाद, शिष्य के मन में जहाँ कोई शंका उठे ऐसी स्थिति में, अथवा कोई बात आगम में स्पष्ट न हो सकती हो, उसके सम्बन्ध में गुरुजनों आदि से समाधान पाने का प्रयत्न करना 'पृच्छना' हैं। ये प्रश्न एक प्रकार से विषय की सुस्पष्टता के लिए प्रारम्भिक कदम है। इसीलिए शास्त्रों में आचार्यादि बहुश्रुत के समक्ष अर्थ-विनिश्चय हेतु जिज्ञासा रखने की प्रेरणा दी गई है।
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उक्त निरूपण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि पृच्छा या जिज्ञासा का मुख्य उद्देश्य स्वसंशयोच्छेद व अर्थ-विनिश्चय है । अतः अपने को बड़ा ज्ञानी व अध्येता प्रदर्शित करने, दूसरे को दबाने या उस पर रौब डालने या उसका उपहास करने, या विवाद - कलह करने की भावना से प्रश्न करना शास्त्रसम्मत नहीं ।
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पृच्छा या जिज्ञासा विशेषतः द्रव्य, गुण, पर्याय के विधि-निषेध विषयक होती है। अथवा सामान्यतः सूत्र या उसके अर्थ के सम्बन्ध में कोई भी जिज्ञासा या प्रश्न 'पृच्छा' है।
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शास्त्र के अर्थ को जानने वाला भी, गुरु आदि के समक्ष जिज्ञासा रख सकता है ताकि वह असंदिग्ध (पूर्णतः निश्चित ) हो जाए । स्वयं असंदिग्ध भी हो तब भी जिज्ञासा की जा सकती है ताकि ग्रन्थ के अर्थ की और भी अधिक पुष्टि (बलाधान) हो जाए। ५२
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४७. धवला ९.४.१.५५, धवला, पु. १४ पृ. ९
दशवै. ८.४३। धवला १३.५.५.५०१
४८.
४९. राजवार्तिक ९.२५०२/
५०.
हरिभद्रीय टीका, दशवै. ४.१ ।
सूत्रकृतांग- १.९.३३; १.४.१-१०, दशवै नवम अध्ययन, उत्तराध्ययन प्रथम व एकादश अध्ययन ।
तथा राजवार्तिक ९.१२५.२. अनगारधर्मामृत- ७.८४; धवला १४.५.६.१३ ।
५१.
५२.
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धवला, १३.५.५.५०।
घवला,
वहीं ।
तत्त्वार्थ. श्रुतसागरीयवृत्ति, ९.२५ ।
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