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स्वाध्याय-विधि - इस सम्बन्ध में भी विस्तृत जानकाीर शास्त्रों में दी गई है। १२ ।
स्वाध्याय-योग्य ग्रन्थ - सच्छास्त्र ही योग्य हैं। इस सम्बन्ध में भी विशेष निरुपण शास्त्रों में पर्याप्त है, जो मननीय हैं। ९३
स्वाध्याय का महत्त्व - जैन धर्म व दर्शन की दृष्टि से स्वाध्याय का स्वरूप कई रूपों में प्रमाणित किया जा सकता है। जैन धर्म व दर्शन के क्षेत्र में स्वाध्याय को दैनिक-चर्या में क्या स्थान दिया गया है, स्वाध्याय का क्या स्वरूप प्रतिपादित है-अर्थात् इसकी स्वरूपगत विशेषता क्या है? इसका प्रयोजन व फल कितना महनीय प्रतिपादित हुआ है, इन सब बातों पर विचार किया जाए तो स्वाध्याय की महत्ता स्वतः उजागर हो जाती है।
(क) श्रावकधर्म में परिगणित - शास्त्रों में श्रावक (जैन) के ६ आवश्यक दैनिक क्रम बताए गए हैं, उनमें स्वाध्याय तत्वाभ्यास आदि) का भी परिगणन है। १४
सागार धर्मामृत में कहा गया है कि जो श्रावक स्वाध्यायादि में आलस्य करता है, वह हितकार्यों में प्रमाद करता है। ९५
(ख) स्वाध्याय-एक तप - स्वाध्याय का जो स्वरूप शास्त्रों में प्रतिपादित है, वह भी इसकी महत्ता को उजागर करता है। श्रमण संस्कृति-यह नाम ही इस धर्म में 'तप' की महत्ता प्रतिपादित करने हेतु पर्याप्त है। 'श्रम' यानी तप, जो श्रम या तप करे वह श्रमण। १६ मोक्ष या आत्मसाधना के मार्ग में 'तप' की महत्ता सर्वोपरि असंदिग्ध है। ९७ 'तप' से कर्मों का आना तो रुकता ही है, पूर्व उपार्जित कर्मों की निर्जरा भी होती है। इस प्रकार तप की द्विविध क्रिया बताई गई है। 'तप' रूपी अग्नि से आत्मा रूपी स्वर्ण निष्कलंक बन जाता है। १९ मोक्षमार्ग से सुआचरित तप अज्ञानान्धकार नाशक 'दीपक' है। १००
९२. द्र. दशवै. ५.१.९३, अनगारधर्मा. ९.४५-७४, ८२८५, मूलाचार-२८०, ३९३, धवला-९.४.१.५४ गा.
१०७ (जै.सि.को ४.५२७)। आत्मानुशासन-१७०, वसुनन्दि श्रावकाचार-३१२, सागारधर्मा. ७.५०, (जै.सि.को. ४.५२)। देवपूजा गुरुपास्ति: स्वाध्याय: समयस्तपः। दान चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने-दिने। (पद्मनन्दि प. ६.९)। तत्वाभ्यासो स्वकीयव्रतरतिरमलं दर्शनं यत्र पूज्यं तद्गार्हस्थ्य प्रधानम् (पदमनन्दि प. १,१३)। गृहस्थस्य इज्या, वार्ता, दत्ति;, स्वाध्ययायः सयमच तपः- इति आर्यषट्कर्माणि भवन्ति चारित्रसार, पृ. ४३, जै.सि. को
४.५१)। ९५. स्वाध्यायमुत्तमं कुर्यात्, अनुप्रेक्षाश्च भावयेत्। यस्तु मन्दायते तत्र स्वाकाये स प्रमाद्यति। ( धर्मा. ७.५५) ९६. (क) दशवै. १.३ पर हारिभद्रीय टीका (ख) सूत्रकृतांग १.१६.२ पर शीलांकाचार्य टीका। ९७. उत्. २८.२ ( तुलना-तपसा ब्रह्मा विजिज्ञासस्व, तैत्ति. उप. ३.२.५)। ९८. तपसा निर्जना च (त. सू. ९.३)। भगवती आरा. १८५१, दहइ तवो भवबीयं तणाकट्ठादी जहा (मूलाचार,
७४७)। ९९. तवसा तथा विसुज्झदि जीवो कम्मेहिं कणायं वा (मूलाचार ५.५६)। १००. होइ सुतवों य दीओ अण्णाणतमंधयारचारिस्स (भगवती आरा. १४६६)।
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