Book Title: Jain Parampara me Swadhyaya Tapa
Author(s): Damodar Shastri
Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf

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Page 13
________________ १०१ स्वाध्याय और १०४ तप के अन्तरङ्ग व बाह्य- इन दो भेदों में से स्वाध्याय ६ अन्तरंग तपों में से एक है। बारह प्रकार के तपों में भी स्वाध्याय की श्रेष्ठता है। शास्त्रकार के शब्दों में १०२ " स्वाध्याय के समान न तो कोई तप है और न कोई भविष्य में इससे अधिक श्रेष्ठ तप होगा। तप की तरह १०३ उससे प्राप्त सज्ज्ञान से भी कर्मों का अतिशीघ्र क्षय किया जा सकता है। (ग) मुनि चर्या में स्वाध्याय का प्रमुख स्थान साधु के लिए जो आवश्यक ६ क्रियाएं निर्धारित है, उनमें स्वाध्याय भी एक है। केवल चार घड़ी सोने के अलावा मुनि अपना समय आवश्यक धर्मक्रियाओं में ही लगाता है। उनमें भी स्वाध्याय में मुनि को, आठ प्रहर के पूरे दिन रात में चार प्रहर का समय (यानी आधा समय) व्यतीत करना होता है। प्रथम प्रहर में सूत्र- स्वाध्याय, द्वितीय प्रहर में (सूत्रार्थ - चिन्तन) ध्यान, तृतीय में भिक्षाचर्या, चतुर्थ में पुनः स्वाध्याय करने की मुनिचर्या शास्त्रों में विहित है। इस विधि-विधान में त्रुटि आने पर प्रतिक्रमण में उक्त भूल का प्रायश्चित्त करता है । १०६ १०५ १०७ (घ) स्वाध्याय के महनीय फल (१) पज्ञातिशय ज्ञान से ही साधक 'मुनि' होता है।' ज्ञान का प्रकाश सूर्य के प्रकाश से भी बढ़ कर है १०८ इसके बिना मोक्षमार्ग को पार करना कठिन है। १०९ ज्ञान मोक्ष मार्ग का तत्व प्रकाशक एक दीपक है। ११० अतः शास्त्रों में ज्ञान दीप को प्रज्वलित करने की प्रेरणा दी गई। १११ ज्ञान का यह दीपक स्वाध्याय के अभ्यास के बिना प्रदीप्त नहीं हो सकता । स्वाध्याय से सभी संशयों की निवृत्ति, ११४ तथा ज्ञान का प्रसार होता है। इसीलिए स्वाध्याय को सब भावों (पदार्थों) का प्रकाश कहा गया है। ११२ ११३ ११५. - १०१. मूलाचार- ३६०, पुरुषार्थसि. १९९ औपपातिक सू. १९, तत्या. सू. ९.२०, व्याख्याय २५.३.७० १०२. (क) भगवती आरा. १०७। ख धवला, ९.४.१.५४, ग बृहत्कल्प भाग्य ( गाया- ११६९, भाग-२) । १०३. दश. १.१ पर जिनदास चूर्णि पृ. १५ । १०४. (क) उत. २९.१८ पर नेमिचन्द्रीय टीका में उद्धत (ख) प्रवचनसार, ३.३८। Jain Education International - १०५. उत्त. सू. २६.११-१२, २६.१७-१८, २६-४३। १०६. (क) सामायिक आवश्यक प्रतिक्रमणआ सूत्र) । (ख) सावयावस्सय सुत्त प्रतिक्रमणा सूत्र- ज्ञानातिचार पाठ । १०७. उत्त. २५.३२। १०८. भग. आरा. ७६८ १०९. भग. आरा. ७७१ । ११०. १११. पाहुडदोहा-८७१ ११२. योगशिखोप. ६.७३ । ११३. तत्वार्थ राजवार्तिक- १.२५.६ ११४. सज्झाए णाणाह पसरु (सावयधम्मदोहा, १४० ) | ११५. उत्त. २६.३७ (९४) (क) भग. आरा. ७६७। (ख) ८०७ (ग) चाणाक्य सू. ५६५ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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