Book Title: Jain Digest 1994 06 Special Issue
Author(s): Federation of JAINA
Publisher: USA Federation of JAINA

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Page 50
________________ महावीर और अहिंसा आचार्य मुनि सुशील कुमार संस्कृति और मानव शिष्टाचार के विकसि में चाहे कितने ही देशों का योगदान रहा हो, किन्तु संस्कृति के कुछ ऐसे उपकरण हैं जिन्हें केवल भारत के ऋषि मुनियों ने ही जुटाया। विज्ञान,गणित और भाषा के आदिम विकास के लिये तो समुचा जगत भारत का ऋणी रहेगा ही, किन्तु विचार के क्षेत्र में अहिंसात्मक कान्ति का जो सुन्नपात भगवान महावीर ने किया वह सर्वथा अनूठा हैं। प्रति चैन्न शुक्ला त्रयोदशी के दिन हम उस विश्व वन्य महापुरुष के जन्म महोत्सव पर उसके आगे नतमस्तक होने का गौरव प्राप्त करते हैं, जिसने जनजीवन की उलझनभरी पहेलियों का व्यावहारिक समाधान अहिंसात्मक ढंग से करने का मौलिक दर्शन प्रस्तुत किया था। महावीर बिहार के मुजफ्फर पुर जिले के वैशाली उपनगर के क्षन्नीय कुण्ड गाम में महाराजा सिद्धाथर के धर महारानी निशाला की कंख से जन्मे थे। राजसी वैभव, आमोद प्रमोद एवं शालीनता के अम्बार में फूल सी काया वाला यह महापुरुष कांटों की राह पर कैसे चल पडा ? भोग के महासमुद्र में से त्याग के कठोरतम पथ की ओर क्यों आकषित हुआ? भय व आंतक तथा दम्भ एवं शोषण को मानवीय जीवन से सर्वथा तिलांजलि देकर निर्भयता पूर्वक अखण्ड सत्य की और क्यों प्रेरित हुआ, यह एक ऐसा प्रश्न है, जिसके समाधान के रुप में महावीर का जीवन आज इस विश्व-विनाश के कगार पर खडी मानवता को चिन्तन शांति और कल्याण का सन्देश दे सकता है। जैन धम के अन्तिम तीर्थ कर भगवान महावीर ७२ वर्ष का जीवन व्यतीत कर निर्वाण को प्राप्त हुए। वह तीस वर्ष तक घर में रहे, १२ वर्ष, ५ मास, १५ दिन साधनारत रहे तथा ३० वर्ष अंग बंग कलिंग, सोराष्ट्र मगध, अवन्ती, काशी और कोशल आदि जनपदों में धूम-धूमकर सत्य का निर्मयता के साथ प्रचार करत रहे। वह पुरुषार्त एवं कष्ट सहन से साधना की ओर अग्रसर हुए तथा साधनासे सिद्धि और मुक्ति प्राप्त की। महावीर विचार पूर्वक इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे की हष्ट में तपे बिना मनुष्य पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकता। दुः खनाश का उपाय उससे पलायन नही, उसे सम्पूर्ण रूप से आमन्त्रित काना है। कष्ट निवारण का उपाय कष्टों से भागना नहीं उनका स्वयं आव्हान करना हैं और जब तक साधक कष्ट निवार्ण के लिये परम सहाय अपेक्षी है तब तक उसे यथार्थ जीवन का सौन्दर्य-बोध हो ही नहीं सकता। महावीर का साधनाकाल सवयमेव कष्ट सहन का एक रुचिकर यारव्यान है। १२ वर्ष के कठोर साधनाकाल में उन्होंने अधिकाधिक कष्ट आमन्त्रित करने, दुःख दावानल में घुसने, पीडाकारी प्राणियों से वेदना पाने तथा भूख-प्यास के भयानक व्याधियों और यन्त्रणाओं को सहन करते-करते दुःख को ही दवा बना देने की प्रतिज्ञा चरितार्थ की। वस्तुतः इन्ही अनुभवों ने वर्धमान को सिद्ध पुरुष “महावीर" बनाया। दिवाकर दीप्ति विशेषांक Page 48 June 1994 Jain Digest Jain Education International 2010_02 Jain Education Interational 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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