Book Title: Jain Digest 1994 06 Special Issue
Author(s): Federation of JAINA
Publisher: USA Federation of JAINA

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Page 51
________________ मुनि सुशीलकुमार जी के शब्दों में रामलीला ग्राउन्ड की विशाल जनता में दिये गये "विश्व धर्म सम्मेलन के सम्बन्ध में भाषणों का सार विश्व विनाश और प्रलय के द्वार पर खड़ा है। हमारे विचार में इसके प्रधान कारण तीन हैं। : १. व्यतिगत और समष्टिगत जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हिंसा की अधिकाधिक वृद्धि हो रही है। २. भौतिकता और भोगाभिलाषा ने मनुष्य की श्राध्यात्मिकता को पराजित करने के लिये आक्रमण कर दिया है। ३. नास्तिकता, जडवाद एव मर्यादा-हीनता के कारगा मानवता का निरन्तर ह्रास हो रहा है, और परिणाम स्वरूप नैतिकता और सदाचार के नियम टूट रहे हैं । जब तक हिंसक शक्तियों के विरूद्ध अहिंसा का विश्व व्यापी मोर्चा स्थापित न किया जायेगा और विश्व के ह्रदय में हिंसा भूतदया और पारस्पारिक सहयोग भावना की प्राण- प्रतिष्ठा न की जायेगी और विश्व के ह्रदय में हिंसा भुतदया और पारस्पारिक सहयोग भावना की प्राण-प्रतिष्ठा न जायेगी, तब तक विश्व शान्ति स्वप्न मान्न ही रहेगी। धर्म को धन दबोच न ले, एवं मनुष्य के अस्तित्व को सत्ता तथा सम्पति विनष्ट न कर दे, इस खतरे से बचने के लिये मानव जाति के र्धामक और अध्यात्मदृष्टात्रों के संगठन की अत्यन्त आवश्यकता है। मेरी दृष्टि में विश्व धर्म सम्मेलन इसी उद्धेश्य की पूर्ति एक साधन है। निश्चित है कि भौतिक शक्तियों से आत्मा की शान्ति का झरना नहीं बहेगा। परमाणु बम और उदजन बम प्रेम और आनन्द का कूप नहीं खोद सकेंगे। हिंसा में ही यह चमत्कार है कि वह आध्यात्मिक सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में सभी प्रकार से मानवता को पोषण दे सकती है। हमारा विश्वास है कि: (क) राजनीतिक समझौते युद्ध का अन्त नहीं कर सकते। (ख) कपट, कूटनीति और संघर्ष से मानवता का विकास नहीं हो पायेगा । (ग) सामाजिक रूढिया, प्राणी निर्दयता वर्गभेद और जातिद्वेष से संसार का लाभ न होगा। (घ) उच्छृंखलता, संचयवृत्ति और शोषण मनुष्य जाति के लिऐ कदापि हितकर नहीं है। विश्व शान्ति का सूर्य तो अहिंसा के आकाश से ही चमकेगा और हिंसा की प्रतिष्ठा के लिये हृदय परिवर्तन की आवश्यकता है। यह विश्व व्यापी महान कार्य कैसे हो? व्यक्ति और समष्टि के क्षेत्र में पैठती हुई हिंसा का निरोध किस पद्धति से हो सकता है? Jain Digest June 1994 Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only Page 49 www.jainelibrary.org

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