Book Title: Jain Dharma aur Tantrik Sadhna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 2
________________ .........."यदि तन्त्र का उद्देश्य वासना-मुक्ति और आत्मविशुद्धि है । तो वह जैनधर्म में उसके अस्तित्व के साथ जुड़ी हर्ह है । किन्तु यदि तन्त्र का तात्पर्य व्यक्ति की दैहिक वासनाओं और लौकिक एषणाओं की पूर्ति के लिए किसी देवताविशिष्ट की साधना कर उसके माध्यम से अलौकिक शक्ति को प्राप्त कर या स्वयं देवता के माध्यम से उन वासनाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति करना माना जाय तो प्राचीन जैनधर्म में इसका कोई स्थान नहीं था। महावीर की परम्परा में प्रारम्भ में तन्त्रमन्त्र और विद्याओं की साधनाओं को न केवल वर्जित माना गया था,अपितु इस प्रकार की साधना में लगे हए लोगों को आसरी योनियों में उत्पन्न होने वाला तक भी कहा गया । किन्तु जब पार्श्व की परम्परा का विलय महावीर की परम्परा में हुआ तो पार्श्व की परम्परा के प्रभाव से महावीर की परम्परा के श्रमण भी तांत्रिक परम्पराओं से जुड़े । महावीर के संघ में तान्त्रिक साधनाओं की स्वीकृति इस अर्थ में हुई कि उनके माध्यम से या तो आत्मविशुद्धि की दिशा में आगे बढ़ा जाय, अथवा उन्हें सिद्ध करके उनका उपयोग जैनधर्म की प्रभावना या उसके प्रसार के लिए किया जाय ।" -जैनधर्म और तान्त्रिक साधना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainerary.org

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