Book Title: Jain Dharm aur Sangit
Author(s): Gulabchandra Jain
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf

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Page 3
________________ यशोधरा में कवि मैथिलीशरण गुप्त ने भी गीत की बताते हुये बताया कि तेज में एक विशेष नित्य समवाय परिभाषा कही है- “अधर पर मुस्कराहट है, नैनों से संबंध तेज-गुण, रूप रहा हुआ है, वही रूप, तेज, हर नीर बहता है, हृदय की हुक हँस पड़ती, जिसे जग प्राणी को आकर्षित करता है और उसको ग्रहण करने गीत कहता है।" वाली आँख है। इन सब बातों से यह सरलता से समझ में आ सकता है कि मालकोश की ध्वनि का यही अभिजैन आगमों में यह कहा गया है कि जिस समय प्राय है कि मानव के अन्दर अज्ञान, अंधकार, मिथ्या भगवान महावीर के कान से खीले खींच कर निकाले ज्ञान, अविवेक जो रहा हुआ है उसे निकालने के लिये गये उस समय उन्हें इतनी अधिक वेदना हुई थी कि तेज शक्ति ताप और वैसे ही रूप की आवश्यकता रहती उनके मुख से ऐसी तेज ध्वनि (चीख निकली कि जिस है कि वह अंधकार रूपी मिथयाभिमान से निकलकर पहाड़ी के तले वे काउसग्ग में खड़े थे उस में दरार पड़ वास्तविक अपने स्वरूप को देंखे और उस तेज को ग्रहण गयी। आज के युग में इस बात को शायद ही कोई कर अंधकार से छुटकारा पाये। कहावत भी है कि बिरला व्यक्ति मानने पर तैयार हो; पर अधिकांश जिसके चहरे और वाणी में तेज (नूर) नहीं, वह नर मानने को तैयार नहीं हैं। संगीत की ध्वनि में इतनी होते हये भी नराधम है। हम आप सभी यही बात शक्ति है तथा आकर्षण है कि वह बड़े-बड़े पहाड़ों में कहते हैं कि सामान्य मानव की वाणी कितनी गंभीर भी दरार पैदा कर देती है। और तेजपूर्ण है कि उसके वाणी को सुनकर क्र र से क्रूर हिंसक प्राणी भी; जिस तरह आंच पाकर लोहा पिघल प्राणियों को "संगीत” ध्वनि तरंगों के अनुसार कर बहने लगता है, उसी प्रकार उसमें भी रहे हुये बुरे सात्विक, राजस तथा तामस प्रकृतियों में बदल देता है। विचार पिघलकर बहने लगते हैं । ऐसी अवस्था में यदि ध्वनि तरंगों का कितना अकाट्य प्रभाव पड़ता है इस मिथ्या अभिमान को एक बाज में रखकर शान्त जिसका साक्षात्कार हमें नत्य में और सरकसों में, मौत चित्त से विचार करें तो वास्तविकता हमारे समझ में - की सीढ़ी पर चढ़ने वालों में, लड़ाई में अनेक कर्तव्यों आ जावेगी कि सामान्य जन की वाणी में ध्वनि का को देखकर होता है । शास्त्रों में जो लिखा गया है कि इतना प्रभाव है तो जो तीर्थकर या अवतारी पुरुष या ध्वनि से अनेक बीमारियां कट जाती हैं; उसे आज भगवान होते हैं उनकी वाणी की ध्वनि कितनी तेज वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं। युक्त रहती होगी कि उस वाणी के प्रभाव से तीनों लोक के प्राणी अपनी भूलों को स्वीकार करके उनके चरणों प्रश्न यहां यह रह जाता है कि भगवान महावीर । ने तथा इनके पूर्व में जितने भी तीर्थकर हुये वे सभी में मस्तक झुकाकर अपने को अहोभाग्य समझते हैं। ने "मालकोश" की ध्वनि में ही क्यों प्रवचन दिये हैं। जैन दर्शन संसार को जब अनादि-अनंत मानता इस विषय के लिये जिज्ञासुओं को चाहिये कि नंदी है तब यह कथन प्रागेतिहासिक काल का हो जाता है। सूत्र, आवश्यक भाव्य द्रव्यानयोग और भगवती सूत्र इसलिये हम ऐतिहासिक दृष्टि से इसके विषय में भगवान आदि आगमों को सूक्ष्म दृष्टि से देखें। इसका सामान्य महावीर की उपस्थिति में संगीत का जैन दर्शन में एक कारण यह भी है कि मालकोश राग में तेज तत्व कितना स्थान था इसी को लक्ष्य कर ही इसका प्रतिविशेष रूप से रहे हुये हैं । वैशेषिक जिसके कर्ता कणाद, पादन करते हैं । आगमों में जो संकलन किया गया वह न्याय सूत्र जिसके कर्ता गौतम हैं तथा तर्क-संग्रह जिसके क्रमबद्ध न होकर प्रसंगानुसार पाया जाता है। हमारे कर्ता अन्नभद्र है, उन्होंने अपने ग्रंथों में तेज का स्वरूप सामने इस समय जो संकलन है वह वाचना देववृद्धि १७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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