Book Title: Jain Dharm aur Sangit Author(s): Gulabchandra Jain Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf View full book textPage 6
________________ हो। (3) विषमसम-किसी भी पाद की संख्या एक षडज ग्राम को सात मूर्च्छनाएँ : दूसरे से नहीं मिलती हो। (1) मार्गा (2) कौरवी (3) हरिता (4) रत्ना सप्त-स्वर : (5) सारकान्ता (6) सारसी (7) शुद्ध षडजा। (1) षडज : नासिका, कंठ, छाती, तालु, जिव्हा, मध्य ग्राम की सात मूर्च्छनाएं : दांत इन छह स्थानों से उत्पन्न । (1) उत्तरमंदा (2) रत्ना (3) उत्तरा (2) ऋषभ : जब वायु नाभि से उत्पन्न होकर (4) उत्तरासमा (5) समकान्ता (6) सुवीरा कण्ठ और मुर्वा से टक्कर खाकर (7) अमिरूपा। वृषभ के शब्द की तरह निकलता गांधार ग्राम को सात मूर्च्छनाएं : (1) नदी (2) क्षुद्रिका (3) पूरिमा (4) शुद्ध (3) गांधार : जब वायु नाभि से उत्पन्न होकर हृदय और कण्ठ को स्पर्श करता गांधार (5) उत्तरगांधार (6) सुष्ठुतर मायामा (7) उत्तरायत कोटिया। हुआ सगंध निकलता हो । (4) मध्यम : जो शब्द नाभि से उत्पन्न होकर र संगीत-शास्त्र में मूर्च्छनाओं के नाम अन्य उपलब्ध होते ग हृदय से टक्कर खाकर पुन: नाभि में पहुंचे । अर्थात् अन्दर ही अन्दर (1) ललिता (2) मध्यमा (3) चित्रा (4) गूंजता रहे। रोहिणी (5) मतंगजा (6) सौबोरी (7) षण्मध्या। (5) पंचम : नाभि, हृदय, छाती, कंठ और (1) पंचमा (2) मत्सरी (3) मृदुमध्यमा सिर इन पांच स्थानों से उत्पन्न (4) शुद्धा (5) अत्रा (6) कलावती (7) तीवा । होने वाला स्वर । (1) रौद्री (2, ब्राह्मी (3) वैष्णवी (4) खेवरी 16) घेवत : अन्य सभी स्वरों का जिसमें मेल (5) सूरा (6) नादावती (7) विशाला। हो, इसका अपर नाम धेवत भी है। वर्तमान की उपलब्धियों से वैदिक ग्रन्थों के आधार . (7) निषाद : जो स्वर अपने तेज से अन्य स्वरों पर भरत का नाट्यशास्त्र आदि माना जाता है, जिसमें को दबा देता है और जिसका संगीत विभाग (28 संगीत विभाग (28 से 36 तक) है। उसमें गीत और देवता सर्य हो। वाद्यों का विवरण पाया जाता है किन्तु रागों के नाम और उनका विवरण नहीं बताया गया। ग्राम और मूर्च्छनाएँ : भरत के शिष्य दत्तिल, कोहल और विशाखिय इन सात स्वरों के तीन ग्राम हैं : तीनों ने ग्रन्थ की रचना की थी। प्रथम का दत्तिलम्, (1) षडज् ग्राम (2) मध्य ग्राम तथा (3) दूसरे का कोहलीयम और तीसरे का विशा खिलियम गांधार ग्राम । ग्रन्थ था। वर्तमान में विशाखिलम् अप्राप्त है। १७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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