Book Title: Jain Dharm aur Sangit
Author(s): Gulabchandra Jain
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/210741/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म और संगीत भगवान महावीर ने संसार को अनादि-अनंत कहा उसका काल कितना लंबा है, यह साधारण मानव के है। संसार का न आदि है और न अंत । इसलिये जैन बुद्धिग्राह्य के बाहर की बात है। वर्तमान में मानव, दर्शनकारों ने कहा है कि संसार के उत्थान और पतन जिनकी बुद्धि सीमित है और अनुप्रेक्षा से रहित है, का क्रम चलता रहता है । इसी उत्थान और पतन की उपरोक्त तथ्य को मानने को आज भी तैयार नहीं हैं अवस्था में तीर्थंकरों का जन्म होता है और वे इस परन्तु जो नवीन वस्तुओं को पुन: प्रकाशित करना क्रमानुसार अनन्त हो गये हैं और होते रहेंगे । जितने चाहते हैं वे तथ्यों को कभी भी अस्वीकार नहीं करते। भी पूर्वकाल में तीर्थकर हो गये हैं उन्होंने अपना प्रवचन उनका कहना है कि भूतकाल में जो शक्ति उत्पन्न हई राग 'मालकोश' में ही दिया और भविष्य में होने वाले है उनका नाश कभी नहीं हुआ है। वे इसी आकाश प्रदेश में विद्यमान हैं क्योंकि यदि हम वस्तुओं का विनाश मान लेते हैं तो वस्तुओं का अभाव हो जाता गुलाबचन्द्र जैन है । वस्तुओं के ही अभाव होने पर उत्पत्ति के आधार का अभाव होता है जो युक्ति संगत नहीं है। जिस प्रकार भी 'मालकोश' की ध्वनि में ही देवेंगे । संगीत के विषय वायु अस्थिर रहती है उसी तरह प्रत्येक परमाणु भी की उत्पत्ति का निश्चय करना बालचेष्टा ही है। इतना स्थिर नहीं रहते वे निरंतर गमनागमन कार्य करते अवश्य है कि रागों में उत्थान और पतन समयानुकूल, रहते हैं । वायु को जिस प्रकार एकत्रित कर उसमें प्रकृति के परिवर्तनानुसार होता ही रहता है। इसी शक्ति पैदा की जाती है उसी प्रकार परमाणु को भी संग्रहीत कर उससे मनचाहा काम लिया जाता है । देकर उसमें उलझने लगते हैं और ध्वनि की वास्तविक प्रत्येक परमाणु में रूप, रंग, गंध, स्पर्श एवं शब्द आदि तरंगों और उसके क्रिया एवं शक्ति से हम वंचित हो गुण एक दूसरे से भिन्न और अभिन्न रहते हैं। इसलिये जाते हैं। जैन दर्शन में रागों का कितना महत्व है और उनके संग्रहीत करने में इस बात का ध्यान रखना पड़ता १७१ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के है कि किस प्रकार के कंपन का और कितनी मात्रा में उपयोग किया जाय कि परमाणुओं का समूह हमारी इच्छा 'अनुसार कार्यरूप में परिणत हो । भगवान महावीर ने कहा है कि हमारे मुँह से जो शब्द निकलते हैं वे हमें या दूसरों को सुनाई नहीं पड़ते। जो भाषा वा शब्द हमारे मुँह से निकलते हैं, वे इतने सूक्ष्म और तीब्र गतिशील होते हैं कि एक समय जिसका दो भाग नहीं हो सकता, उतने समय में सारे लोकाकाश में वे फैल जाते हैं और दूसरे समय में लोकाकाश के अंतिम हिस्से से टकराकर समूह रूप में परिणित होते हैं तब सामूहिक परमाणु में ध्वनि उत्पन्न होती है जो हमें में ध्वनि उत्पन्न होती है जो हमें सुनाई पड़ती है। इसकी पुष्टि शकभाष्य के प्रथम खण्ड और भगवतीसूत्र, परमाणु उद्देशक, पुदगल उद्देशक और भाषा उद्देशक में मिलती है । उपरोक्त उद्देशकों से यह स्पष्ट हो जाता है कि 'परमाणु' पुदगल के रूप में किस प्रकार परिवर्तित होता है और भाषा वर्गणाओं के लिये कितने परमाणुओं एवं परमाणुओं के स्कंधों की आवश्यकता पड़ती है, जो श्रोतेन्द्रियों के ग्रहण योग्य बनती हैं। वैशेषिक और न्याय दर्शन में भी परमाणु के विषय में बताया गया है कि सूर्य की किरणें छिद्र में से होकर बाहर आती हैं तथा उसमें जो छोटे-छोटे अति सूक्ष्म रजकण दिखाई पड़ते हैं उनका साठवां भाग परमाणु मान लिया गया है । परन्तु जैन दर्शनकारों का कथन है कि अनन्त परमाणुओं का स्कंध बनने पर भी वे दृष्टिगोचर नहीं हो सकते। जैन दर्शनानुसार अनन्त परमाणु के स्कंध वाले, स्कंधों से भी जो अनन्त हो और जब उसका पिण्ड बनता है तब वे इन्द्रिय-ब्राह्म बनते हैं। ऊपर कह आये हैं कि हर एक परमाणु में अपनी विशेष वर्गण शक्ति रहती है। जिस परमाणुओं से भाषा बनती है उन्हें जैन दर्शन में भाषा वर्गणा कहा है । परमाणुओं का स्कंध किस तरह बनता है इसके विषय में कहा गया है कि, 'काय वाङग्रा मन : कर्म उस ध्वनि को योगः' । अर्थात् मन, बचन और काया के योग से जो एक प्रकार का विशेष रूप से कंपन होता है अथवा जिसे कंपन क्रिया कहा जाता है उस कम्पनानुसार ही परमाणुओं का स्वतः संचय होता रहता है। जिस प्रकार चुम्बकीय शक्ति से लोह के परमाणु स्वतः खिच कर उसमें आ मिलते है उसी प्रकार अपने गुणों के अनुसार स्वधर्मी स्वधर्मी में आकर मिलते रहे हैं और कार्यरूप में परिणत होते रहते रहते हैं । उसमें उतारचढ़ाव अथवा हानि और वृद्धि जो होती रहती है उसका कारण आपस में मिलकर और पुनः अलग विलग हो जाने में होती है । सामान्य दृष्टि से कम्पन की मात्रा एक सैकेण्ड में 240 मान ली है और मन्द मध्य तथा तीव्र में विभाजित की है जो 22 श्रुतियों के नाम से कही जाती है। तीब्र में 3800 मात्रायें संगीत के रूप में मान ली गयी है। उससे अधिक मात्रा होने पर वह ध्वनि संगीत न कहलाकर कोलाहल की श्रेणी में आती है। कहने का आशय यह है कि संगीत शास्त्र में जो धतियों और ध्वनि मात्राओं की रूपरेखा तैयार की है, वह सूक्ष्म दृष्टि से न कर स्थूल दृष्टि से है, क्योंकि कार्य रूप में और इंद्रियों के ग्राह्य योग्ण कितना कम्पन कम से कम आवश्यक है, ताकि वह व्यवहार में सुचारु रूप से उपयोग हो सके । इसलिये उस ध्वनि का नाम संगीत रखा - 'सम' अर्थात् सम्यक प्रकार में श्रोतेन्द्रिय की शक्ति में किसी प्रकार से विकार पैदा न करे उसकी शक्ति से वृद्धि और सुचारू रूप से उसमें सहायक भूत हो वह सम्पक ध्वनि ही संगीत कही जाती है। संगीत में तीन अक्षर है संगीत बीच के अक्षर 'गी' अर्थात् ग्रीवा वाणी को निकालने से, 'संत' बचता है। संतों की 'गी' - अर्थात् वाणी को संगीत कहते हैं। रागद्व ेष से रहित संतों के हृदय के भाव उनके उद्गार जो निकलते थे, उसमें ऐसी शक्ति थी कि लोग आकर्षित हो जाते थे और उसको ही भव्य प्राणी लक्ष्य मानकर अनुकरण करते और वही संगीत कहा जाता था । १७२ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोधरा में कवि मैथिलीशरण गुप्त ने भी गीत की बताते हुये बताया कि तेज में एक विशेष नित्य समवाय परिभाषा कही है- “अधर पर मुस्कराहट है, नैनों से संबंध तेज-गुण, रूप रहा हुआ है, वही रूप, तेज, हर नीर बहता है, हृदय की हुक हँस पड़ती, जिसे जग प्राणी को आकर्षित करता है और उसको ग्रहण करने गीत कहता है।" वाली आँख है। इन सब बातों से यह सरलता से समझ में आ सकता है कि मालकोश की ध्वनि का यही अभिजैन आगमों में यह कहा गया है कि जिस समय प्राय है कि मानव के अन्दर अज्ञान, अंधकार, मिथ्या भगवान महावीर के कान से खीले खींच कर निकाले ज्ञान, अविवेक जो रहा हुआ है उसे निकालने के लिये गये उस समय उन्हें इतनी अधिक वेदना हुई थी कि तेज शक्ति ताप और वैसे ही रूप की आवश्यकता रहती उनके मुख से ऐसी तेज ध्वनि (चीख निकली कि जिस है कि वह अंधकार रूपी मिथयाभिमान से निकलकर पहाड़ी के तले वे काउसग्ग में खड़े थे उस में दरार पड़ वास्तविक अपने स्वरूप को देंखे और उस तेज को ग्रहण गयी। आज के युग में इस बात को शायद ही कोई कर अंधकार से छुटकारा पाये। कहावत भी है कि बिरला व्यक्ति मानने पर तैयार हो; पर अधिकांश जिसके चहरे और वाणी में तेज (नूर) नहीं, वह नर मानने को तैयार नहीं हैं। संगीत की ध्वनि में इतनी होते हये भी नराधम है। हम आप सभी यही बात शक्ति है तथा आकर्षण है कि वह बड़े-बड़े पहाड़ों में कहते हैं कि सामान्य मानव की वाणी कितनी गंभीर भी दरार पैदा कर देती है। और तेजपूर्ण है कि उसके वाणी को सुनकर क्र र से क्रूर हिंसक प्राणी भी; जिस तरह आंच पाकर लोहा पिघल प्राणियों को "संगीत” ध्वनि तरंगों के अनुसार कर बहने लगता है, उसी प्रकार उसमें भी रहे हुये बुरे सात्विक, राजस तथा तामस प्रकृतियों में बदल देता है। विचार पिघलकर बहने लगते हैं । ऐसी अवस्था में यदि ध्वनि तरंगों का कितना अकाट्य प्रभाव पड़ता है इस मिथ्या अभिमान को एक बाज में रखकर शान्त जिसका साक्षात्कार हमें नत्य में और सरकसों में, मौत चित्त से विचार करें तो वास्तविकता हमारे समझ में - की सीढ़ी पर चढ़ने वालों में, लड़ाई में अनेक कर्तव्यों आ जावेगी कि सामान्य जन की वाणी में ध्वनि का को देखकर होता है । शास्त्रों में जो लिखा गया है कि इतना प्रभाव है तो जो तीर्थकर या अवतारी पुरुष या ध्वनि से अनेक बीमारियां कट जाती हैं; उसे आज भगवान होते हैं उनकी वाणी की ध्वनि कितनी तेज वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं। युक्त रहती होगी कि उस वाणी के प्रभाव से तीनों लोक के प्राणी अपनी भूलों को स्वीकार करके उनके चरणों प्रश्न यहां यह रह जाता है कि भगवान महावीर । ने तथा इनके पूर्व में जितने भी तीर्थकर हुये वे सभी में मस्तक झुकाकर अपने को अहोभाग्य समझते हैं। ने "मालकोश" की ध्वनि में ही क्यों प्रवचन दिये हैं। जैन दर्शन संसार को जब अनादि-अनंत मानता इस विषय के लिये जिज्ञासुओं को चाहिये कि नंदी है तब यह कथन प्रागेतिहासिक काल का हो जाता है। सूत्र, आवश्यक भाव्य द्रव्यानयोग और भगवती सूत्र इसलिये हम ऐतिहासिक दृष्टि से इसके विषय में भगवान आदि आगमों को सूक्ष्म दृष्टि से देखें। इसका सामान्य महावीर की उपस्थिति में संगीत का जैन दर्शन में एक कारण यह भी है कि मालकोश राग में तेज तत्व कितना स्थान था इसी को लक्ष्य कर ही इसका प्रतिविशेष रूप से रहे हुये हैं । वैशेषिक जिसके कर्ता कणाद, पादन करते हैं । आगमों में जो संकलन किया गया वह न्याय सूत्र जिसके कर्ता गौतम हैं तथा तर्क-संग्रह जिसके क्रमबद्ध न होकर प्रसंगानुसार पाया जाता है। हमारे कर्ता अन्नभद्र है, उन्होंने अपने ग्रंथों में तेज का स्वरूप सामने इस समय जो संकलन है वह वाचना देववृद्धि १७३ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिका है। इसके पूर्व 3 वाचना का संकलन हुआ था जो लिपिबद्ध नहीं मिलता। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि वे वाचनायें पुनरावर्ती के रूप में मुखाग्रही करा दी गयी होंगी। यदि लेख रूप में होते तो कुछ अंशों में अवश्य मिलते। जैन आगमों के सिवाय अन्य प्रकरणों में और स्वतंत्र रूप से भी अति सूक्ष्म दृष्टि से लिखे गये ग्रन्थ संपूर्ण नहीं मिलते। उन ग्रन्थों का नाम अन्य ग्रन्थों में भी पाया जाता है। इसमें अनुमान लगाया जाता है कि कुछ असावधानी से खराब हो गये, कुछ बाहर विदेश चले गये और इसके पूर्व भारतीय दर्शन का अधिकांश भाग जैन, वैदिक आदि सभी दर्शनों सहित नष्ट कर दिया गया। इसलिये हमारे सामने जो वर्त मान में ग्रन्थ आगम आदि हैं उन्हीं के आधार पर कुछ दिग्दर्शन कराया जा सकता है। वर्तमान अनुसंधानकर्ता ( रिसर्च करने वाले) वर्तमान ग्रन्थों के आधार पर ही अंतिम] छाप लगा बैठते हैं। पर यह विचारणीय है कि अंतिम छाप तो वह लगा सकता है जो सर्वज्ञ और अंतरयामी हो । छदमस्थ यदि ऐसा करता है तो यह उसकी अनाधिकार चेष्टा है । वाद्यों से संबंधित ग्रंथ स्थानाङग 4 प्रस्तुत ग्रन्थ में वाद्यों के चारों प्रकारों के वर्गीकरण का उल्लेख है । जैसे : तत् - तंतुवाद्य, वीणा आदि, ( 1 ) ( 2 ) तितत - मंढे हुये वाद्य, पटह आदि, (3) पन कांस्यताल (4) भुशिर शुषिर-फूंक द्वारा बजने वाले वाद्य, बांसुरी आदि । राजनीय सूत्र 64 प्रस्तुत ग्रन्थ में (1) शंख, (2) श्रृंग, (3) शंखिका, (4) खरमुही, (5) पेया (6) पीरिविरियाशूकर-पुटावनद्धमुखोवाय विशेष (7) पणव- लघु पटह, (8) पटह, ( 9 ) होरंभ ( 10 ) महाढनका, (11) मेरी, (12) झल्लरी, ( 13 ) दुंदुभि-वृक्ष के एक भाग को भेदकर बनाया गया वाद्य (14) मुरज-शंकरमुखी, ( 15 ) मृदंग आदि 60 प्रकार के वायों का उल्लेख किया गया है । , बृहत्कल्प भाव्यपीठिका 24 वृत्ति इस पुस्तक में वाद्यों के नामों का निम्न प्रकार से उल्लेख मिलता है : (1) भंभा ( 2 ) मुकुन्द ( 3 ) मद्दल (4) कडंब झरि (6) हुडुक्क (7) कांस्पताल ( 8 ) काहल तलिमा ( 10 ) वंश ( 11 ) पणव तथा (5) ( 9 ) (12) शंख स्थानाड ग 7, उ. 3 एवं अनुयोग द्वार उपरोक्त ग्रन्थों में "संगीत" की व्याख्या विशद रूप से की गयी है । इसमें गीत के तीन प्रकार बताये गये १७४ में मन्द | । (1) प्रारम्भ में मृदु (2) मध्य में ते (3) अन्त गीत के दोष ( 1 ) भीतं - भयभीत मानस से गया जाय, (2) इतं बहुत शीघ्र शीघ्र गाया जाय, (3) अपित्वं श्वास युक्त शीघ्र गाया जाय अथवा ह्स्व स्वर लघु स्वर से ही गाया जाय । (4) उत्तालं -अति उत्ताल स्वर से व अवस्थान ताल से गाया जाय । (5) काकस्वरं कौए की तरह कर्ण कटु शब्दों - से गाया जाय । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (6) अनुनासिकम-अनुनासिका से गाया जाय। अक्षरादि सम भी सात प्रकार का है : (1) अक्षर सम-हस्व, दीर्घ, प्लुत, सानुनासिका से युक्त । गीत के आठ गुण (1) पूर्ण-स्वर, लय और कला से युक्त गाया जाय। (2) रक्त-पूर्ण तल्लीन होकर गाया जाय । (3) अलंकृत-स्वर विशेष से अलंकृत होकर गाया जाय । (4) व्यक्त-स्पष्ट गाया जाय । (5) अविधुष्टं-अविपरीत स्वर से गाया जाय । (6) मधुरं - कोकिला की तरह मधुर गाया जाय। (7) सम-ताल, वश, व स्वर से समत्व गाया जाय। (8) सुललितं-कोमल स्वर से गाया जाय। (2) पद-सम : पद विन्यास से युक्त । (3) ताल-सम : ताल के अनुकूल कर आदि का हिलाना। (4) ग्रह-सम : बांसुरी या सितार की तरह गाना। (5) लय-सम : वाद्य यंत्रों के साथ स्वर मिला कर गाना। (6) निश्वसित्तोच्छवसितो-सम : श्वास ग्रहण करने और निकालने का क्रम व्यवस्थित । (7) संचार-सम : वाद्य यंत्रों के साथ गाना । प्रकारान्तर से अन्य आठ गुण : अन्य आठ गुण (1) उरोविशुद्ध-अक्षस्थल से विशुद्ध होकर निकलना। (2) कण्ठविशुद्ध-जो स्वर भंग न हो। (3) शिरोविशुद्ध-मूर्धा को प्राप्त होकर भी जो स्वर-नासिका से मिश्रित नहीं होता। (4) मृदुक-जो राग कोमल स्वर से गाई जाय। (5) रिंगित-आलाप के कारण स्वर अठखेलियां करता सा प्रतीत हो।। (6) पदबद्ध-जो गेय पद विशिष्ठ लालित्य युक्त भाषा में निर्मित किये गये हों। (7) समताल प्रत्युत्क्षेप-नर्तकी का पाद निक्षेप और ताल आदि परस्पर मिले हों। (8) सप्त स्वर सोमर-सातों स्वर अक्षरादि से मिलान खाते हों। (1) निर्दोष-गीत के वत्तीस दोष से रहित गाना। (2) सारवन्तं-विशिष्ठ अर्थ से युक्त गाना। (3) हेतुयुक्त-गीत से निबद्ध, अर्थ का गमक और हेतु युक्त। (4) अलंकृतं-उपमादि अलंकारों से युक्त। (5) उपनीतं-उपनय से युक्त । (6) सोपचारं कठिन न हो, विशुद्ध हो । (7) मितं--संक्षिप्त व सार युक्त । (8) मधुरंभ--मोग्य शब्दों के चयन से श्रति मधुर । . छन्द के तीन प्रकार : (1) सम-चारोंपाद के अक्षरों की संख्या समान। . (2) अर्घसम-प्रथम और तृतीय, द्वितीय और चतुर्थ पाद समान संख्या बाले हों। १७५ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो। (3) विषमसम-किसी भी पाद की संख्या एक षडज ग्राम को सात मूर्च्छनाएँ : दूसरे से नहीं मिलती हो। (1) मार्गा (2) कौरवी (3) हरिता (4) रत्ना सप्त-स्वर : (5) सारकान्ता (6) सारसी (7) शुद्ध षडजा। (1) षडज : नासिका, कंठ, छाती, तालु, जिव्हा, मध्य ग्राम की सात मूर्च्छनाएं : दांत इन छह स्थानों से उत्पन्न । (1) उत्तरमंदा (2) रत्ना (3) उत्तरा (2) ऋषभ : जब वायु नाभि से उत्पन्न होकर (4) उत्तरासमा (5) समकान्ता (6) सुवीरा कण्ठ और मुर्वा से टक्कर खाकर (7) अमिरूपा। वृषभ के शब्द की तरह निकलता गांधार ग्राम को सात मूर्च्छनाएं : (1) नदी (2) क्षुद्रिका (3) पूरिमा (4) शुद्ध (3) गांधार : जब वायु नाभि से उत्पन्न होकर हृदय और कण्ठ को स्पर्श करता गांधार (5) उत्तरगांधार (6) सुष्ठुतर मायामा (7) उत्तरायत कोटिया। हुआ सगंध निकलता हो । (4) मध्यम : जो शब्द नाभि से उत्पन्न होकर र संगीत-शास्त्र में मूर्च्छनाओं के नाम अन्य उपलब्ध होते ग हृदय से टक्कर खाकर पुन: नाभि में पहुंचे । अर्थात् अन्दर ही अन्दर (1) ललिता (2) मध्यमा (3) चित्रा (4) गूंजता रहे। रोहिणी (5) मतंगजा (6) सौबोरी (7) षण्मध्या। (5) पंचम : नाभि, हृदय, छाती, कंठ और (1) पंचमा (2) मत्सरी (3) मृदुमध्यमा सिर इन पांच स्थानों से उत्पन्न (4) शुद्धा (5) अत्रा (6) कलावती (7) तीवा । होने वाला स्वर । (1) रौद्री (2, ब्राह्मी (3) वैष्णवी (4) खेवरी 16) घेवत : अन्य सभी स्वरों का जिसमें मेल (5) सूरा (6) नादावती (7) विशाला। हो, इसका अपर नाम धेवत भी है। वर्तमान की उपलब्धियों से वैदिक ग्रन्थों के आधार . (7) निषाद : जो स्वर अपने तेज से अन्य स्वरों पर भरत का नाट्यशास्त्र आदि माना जाता है, जिसमें को दबा देता है और जिसका संगीत विभाग (28 संगीत विभाग (28 से 36 तक) है। उसमें गीत और देवता सर्य हो। वाद्यों का विवरण पाया जाता है किन्तु रागों के नाम और उनका विवरण नहीं बताया गया। ग्राम और मूर्च्छनाएँ : भरत के शिष्य दत्तिल, कोहल और विशाखिय इन सात स्वरों के तीन ग्राम हैं : तीनों ने ग्रन्थ की रचना की थी। प्रथम का दत्तिलम्, (1) षडज् ग्राम (2) मध्य ग्राम तथा (3) दूसरे का कोहलीयम और तीसरे का विशा खिलियम गांधार ग्राम । ग्रन्थ था। वर्तमान में विशाखिलम् अप्राप्त है। १७६ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यकाल में हिन्दुस्तानी और कर्णाटक की प तियों का प्रचार हुआ और उसके साथ आचार्यों ने संगीत पर अनेक ग्रन्थ भी लिखने प्रारंभ कर दिये । सन् 1200 में सब पद्धतियों का मंथन कर शारंगदेव ने, 'संगीत रत्नाकार" नामक ग्रंथ लिखा । उस पर छः टीका ग्रंथ भी लिखे गये। इनमें से चार टीका ग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं । अर्धभागधी ( प्राकृत) में रचित "अनुयोग द्वार" सूत्र में संगीत विषयक सामग्री पद्म में मिलती है। इससे ज्ञात होता है कि प्राकृत संस्कृत में भी अनेक ग्रंथ रहे होंगे क्योंकि कोई भी ग्रंथ लिखने के लिये उसके पूर्व की आधारशिला आवश्यक रहती है। उपरोक्त जैन आगमों और अन्य ग्रन्थों के आधार पर जैन आचार्यों ने भी संगीत पर कुछ ग्रन्थों कि रचना अति पैनी दृष्टि से की है। "संगीत समयसार " ( यह ग्रन्थ त्रिवेन्द्रम संस्कृत प्रस्थमाला में छापा गया है) । दिगम्बर जैन मुनि अभयचन्द के शिष्य महादेवाचार्य और उनके शिष्य पापवंचन्द्र ने "संगीत समयसार " नाम के ग्रन्थ की रचना लगभग वि. सं. 1380 में को है । इस ग्रन्थ में नव अधिकरण है, जिनमें नाद, ध्वनि, स्थायी, राग, वाद्य, अभिनय, ताल, मस्तार और अध्वयोग इस प्रकार अनेक विषयों पर प्रकाश डाला गया है। इसमें प्रताप दिगम्बर और शंकरनामक ग्रन्थों का उल्लेख पाया जाता है और भोज, सामेश्वर, परमर्दी इन तीन राजाओं का नाम भी पाया जाता है। (विशेष परिचय के लिये देखें जैन सिद्धांत भास्कर भाग - 9 अंक-2 और भाग- 10 अंक-10 ) | - 'संगीतोपनिषत् सारोद्वार" यह ग्रन्थ आचार्य राजशेवर सूरि के शिष्य सुधाकलश ने वि. सं. 1406 में लिखा । यह ग्रंथ गायकवाड़ा आरियेन्टल सीरीज, बड़ौदा से प्रकाशित हो गया है । यह ग्रन्थ स्वयं सुधाकलश द्वारा वि. सं. 1380 में रचित "संगीतोपनिषद" का स्वरूप है। इस ग्रंथ में 6 अध्याय हैं और 610 श्लोक हैं। प्रथम अध्याय में गीत प्रकाशन, दूसरे में प्रशस्ति सौपाश्रय-ताल प्रकाशन, तीसरे में गुणस्वर रागादि प्रकाशन और छठें में नित्य पद्धति प्रकाशन है । यह कृति "संगीत मकरंद" और संगीत पारिजात से भी विशिष्टतर और अधिक महत्व की है। इस ग्रंथ में नरचन्द्र सूरि का "संगीतज्ञ" के रूप में भी उल्लेख हुआ है। प्रशस्ति में अपनी "संगीतोपनिषत्" रचना के वि. सं. 1380 होने का उल्लेख भी है । मलधारी, अभयदेवसूरि की परम्परा में अभी चन्द्र सूरि हो गये हैं । वे संगीत शास्त्र में विशारद थे, ऐसा उल्लेख सुधाकलश मुनि ने किया है। "संगीतोपनिषत" आचार्य राजशेखरसूरि के शिष्य सुधाकलश "संगीतोपनिषत” ग्रन्थ की रचना सं. 1308 में की ऐसा उल्लेख ग्रन्थकार ने स्वयं सं. 1406 में अपने "संगीतोपनिषत सारोद्वार" नामक ग्रन्थ की प्रशस्ति में किया है। यह बहुत बड़ा था जो अभी तक उपलब्ध नहीं हो पाया । सुधाकलश ने " एकाक्षरनाम माला" की भी रचना की है । "संगीत मंडन " मालवा मांडवगढ़ के सुलतान आलमशाह के मंत्री मंडन ने विविध विषयों पर अनेक ग्रंथ लिखे हैं । उनमें १७७ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "संगीत मंडल” मी एक है । इस ग्रंथ की रचना सं. 1490 के आस-पास हुई है। इसकी हस्त लिखित प्रति मिलती है। ग्रंथ अभी तक अप्रकाशित है । "संगीत दीपक, संगीत रत्नवाली, संगीत पिंगल" इन तीनों ग्रंथों का उल्लेख जैन ग्रन्थावली में मिलता है । परन्तु इनके विषय में अभी तक नाम के सिवाय विशेष जानकारी नहीं मिलती । नाट्य यो यं स्वभावो लोकस्य सुख दुःख समन्वितः । सोगाद्यभिनय येतो, नाट्यमित्यभिधीयते । दुःखी, शोकार्त, श्रांत एवं तपस्वी व्यक्तियों को विश्रांत देने के लिये नाट्य की सृष्टि की गयी। सुखदुःख से युक्त लोक स्वभाव ही आंगिक, वाचिक इत्यादि अभिनवों से युक्त होने के कारण नाट्य कहलाता है। नाट्य मुद्रायें और चित्रकला प्राणियों के लिये एक विशेष स्वाभाविकता रही है, जिसके आधार पर ही यह अपने मानसिक, वाचिक और काविक भावों का दूसरों पर प्रभाव डालता है । नाट्यकला, मुद्राकला और संगीत कला ये तीनों कला आपस में इस तरह मिली हुई हैं कि जिस प्रकार सूर्य से ताप या प्रकाश अलग नहीं किया जा सकता। मानव के अंतःस्थल में जन भावावेश की जागृति होती है । तद्नुकूल उसकी मानसिक, वाचिक तथा कायिक चेष्टायें स्वतः स्वाभाविक (नेचुरल) प्रकट होने लगती हैं। ये तीनों कलायें सीखनी नहीं पड़ती। वह (मानव) जन्म से ही साथ लेकर जन्मता है और मरणोपरांत भी पुनर्जन्म के समय उसके साथ बनी रहती हैं। लोक आकर्षण के लिये मानसिक प्रवृत्ति न होने पर भी वैसा भाव दिखाना जब कभी आवश्यक होता है और उसका निराकरण करना भी आवश्यक होता है ऐसी अवस्था में उसमें विशेष रूप से शिक्षा-दीक्षा आदि देकर साधक की रुचि के अनुसार उसमें उसे प्रवीण करा दिया जाता है। किसी भी कार्य की पूर्ति के लिये मुख्य दो साधन होते हैं। प्रथम आंत रिक तथा दूसरा वाह्य वा साधन आंतरिक का पूरक है। इसलिये ग्रंथों का प्रकाशन शिक्षा-दीक्षा जितने भी कार्य किये या कराये जाते हैं, आंतरिक भावों की जागृति विशेष के लिये ही होते हैं। वह जागृत अवस्था चाहे भौतिक वस्तु की प्राप्ति के लिये हो अथवा आध्यात्मिक निःश्रय मार्ग को प्राप्त करने के लिये हो; यह तो साधक के मानसिक विचारों और उसके पक्ष पर ही आधारित है। ऋषि-मुनियों ने जो मार्ग दर्शन हमें कराया उनका एकमात्र लक्ष्य निश्रेय मार्ग अर्थात् अपवर्ग मार्ग का ही विशेष लक्ष्य रहा है। परंतु भौतिक या अर्थ की ओर जिनका लक्ष्य रहा, उन्होंने इसका उपयोग अर्थ प्राप्ति के लिये ही किया। इससे इन कलाओं में स्वाभाविक गुण और शक्ति का ह्रास होने लगा है क्योंकि लक्ष्य, लोक रुचि की ओर होने से लोक रुचि अनुसार रंजकता लाने के लिये इन रागों, मुद्राओं और नाट्य कलाओं में परिवर्तन करना पड़ता है। इससे को वो बैठती है। वहां की वस्तुकला वास्तविकता से हटकर अपने स्वरूप "नाट्य दर्पण" कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्र सूरि के दो शिष्यों कवि कहारयल विरुद्धधारक रामचन्द्र सूरि और उनके गुरु माई गुणचन्द्र गणि ने मिलकर "नाट्यदर्पण" की रचना वि. सं. 1200 के आस-पास की है । नाट्यदर्पण में चार विवेक हैं जिनमें सब मिलकर 207 पद्म है। प्रथम विवेक "नाट्यदर्पण" में नाटक संबंधी सब बातों का निरूपण किया गया है। इसमें 1 नाटक 2 प्रकरण, 3 नाटिका, 4 प्रकरणी, 5 व्यायोग, 6 सभवकार, 7 भाण, 8 प्रहसन, 9 डिम, 10 उत्तखास्ति १७८ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तक. 11 इहामृता तथा 12 वीथी-इस प्रकार हरिश्चन्द्र (नाटक). (11) सुधाकलश (कोष), (12) बारह प्रकार के रूपक बताये गये हैं। पांच अवस्थाओं आदिदेवस्तवन, (13) कुमार विहारशतक, (14) और पांच संधियों का भी उल्लेख है। जिनत्तेत्र, (15) नेमिस्त्व, (16) मनुसुब्रस्त्व, (17) यदुविलास, (18) सिद्ध हेमचन्द्र, शब्दानुशासन, लघुद्वितीय विवेक "प्रकरणाद्यकादशनिर्णय न्यास, (19) सोलह साधारण जिनस्त्व, (20) से लेकर बीथी तक के 11 रूपकों का वर्णन है। इसमें प्रसाद्धात्रिशिकर, (21) युगादिद्वात्रिंशिका, (22) वत्ति, रस. भाव और अभिनय का विवेचन है। व्यतिरेकद्वात्रिंशिका, (23) प्रबंधशत-यह ग्रंथ अभी तक अप्राप्त है। तृतीय विवेक "वृत्तिरस-भावाभिनय विचार" में । चार वृत्तियों, नव रसों, नव स्थायी भावों, तैतीस __ "आचार्य दर्पणवत्ति" व्यभिचारी भावों, रस आदि आठ अनुभावों और अभिनवों का निरूपण है। ... आचार्य रामचन्द्र सरि और गुण चन्द्र गणि ने अपने नाट्यदर्पण पर स्वोषज्ञ विवृत्ति की रचना की चतुर्थ विवेक "सर्वरूपक साधारण लक्षण निर्णय" है। इसमें रूपकों के उदाहरण 55 ग्रन्थों में दिये गये में सभी रूपकों के लक्षण बताये गये हैं। हैं । स्वरचित कृतियों से भी उदाहरण लिये हैं। इसमें उपरूपकों के स्वरूप का आलेख किया गया है। आचार्य रामचन्द्र सूरि समर्थ आशुकवि के रूप में प्रसिद्ध थे; गुण-दोषो के बड़े परीक्षक थे। इन्होंने नाटक धनंजय के "दशरूपक" ग्रंथों को आदर्श रूप में आदि अनेक ग्रंथों की रचना की। गुरु हेमचन्द्रचार्य ने रखकर रखकर यह विवृत्ति लिखी गयी है। बित्तिकार ने वितलिलिखी गयी जिन नाटक आदि ग्रन्थों पर नहीं लिखा था उन विषयों कहीं-कहीं घनंजय के मत से भिन्न मत भी प्रदर्शित किया पर इन्होंने अपनी लेखनी चलाई । ये प्रबंध शतकर्ता भी है। भरत के माटय में पूर्वापर विरोध है. ऐसा भी माने गये हैं। प्रबंध शतक ग्रन्थ अभी तक प्राप्त नहीं उल्लेख किया है। अपने गरु आचार्य हेमचन्द्राचार्य के हआ है। ऐसे समय कवि की अकाल मृत्यु सं. 1230 "काव्यानुशासन" में भी कहीं-कहीं भिन्न मत का भी के आस-पास राजा अजयपाल के निमित्त हुई। ऐसी निरूपण मिलता है । इस दृष्टि से यह कृति विशेष तौर सचना प्रबंध से मिलती है। इनके गुरुभाई गुणचन्द्र से अध्ययन करने योग्य है। नाट्यदर्पण स्वपोत विवृत्ति सरि भी समर्थ विद्वान थे। उन्होंने "सवृत्तिक द्रव्या- के साथ गायकवाडा ओरियेन्टल सीरीज में दो भागों में लंकार" आचार्य रामचन्द्र सूरि के साथ रचना की है। छपा है। इस ग्रन्थ का के. एच. त्रिवेदिकृत आलोच नात्मक अध्ययन लालभाई दलपतभाई भारतीय आचार्य रामचन्द्र सूरि ने जो ग्रन्थ लिखे हैं, उनमें संस्कृति विद्यामंदिर, अहमदाबाद, से प्रकाशित हुआ है। वर्तमान समय में निम्नलिखित ग्रन्थ उपलब्ध हैं : "प्रबंध शतक" (1) कौमुदीमियाणंद (प्रकरण), (2) नलविलास (नाटक), (3) निर्भय, (4) मल्लिकामकरंद (प्रकरण), आचार्य हेमचन्द्र सूरि के शिष्यत्व आचार्य राम(5) यादवाभ्युदय (नाटक), (6) रघुविलास (नाटक), चन्द्र सूरि ने 'नाट्यदर्पण" के अतिरिक्त नाट्यशास्त्र (7) राघवाभ्युदय (नाटक), (8) रोहिणी मृगांक विषयक "प्रबंध शतक" नामक ग्रंथ की भी रचना की (प्रकरण), (9) बनमाला (नाटिका), (10) सत्य- थी जो अप्राप्य है । १७६ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "कला-कलाप". "चित्रवर्ण संग्रह वायड गच्छीय जिनदत सूरि के शिष्य अमरचन्द्र सोमराज रचित "रत्न परीक्षा" ग्रन्थ के अंत में सूरि की कृतियों के बारे में प्रबंध कोश में उल्लेख हैं, "चित्रवर्ण" संग्रह के 42 श्लोकों का प्रकरण अत्यंत जिसनें “कला-कलाप" नामक कृति का भी निर्देश है / उपयोगी है। इस ग्रंथ का शास्त्र रूप में उल्लेख है / परन्तु अभी तक यह अप्राप्य है। इसमें 72 या 74 प्रकरणों का निरूपण इसमें मित्तचित्र बनाने के लिये भित्ति कैसी होनी है, ऐसी संभावना है / चाहिये, रंग कैसा बनाना चाहिये, इत्यादि ब्योरेवार वर्णन है। "मसी-विचार" "मसी-विचार" नामक ग्रन्थ जेसलेमर भंडार में है, गुफाओं में और राजा-महाराजों तथा श्रेष्ठियों के जिसमें ताडपत्र और कागज पर लिखने की स्याही प्रसादों में चित्रों को जो आलेखित किया जाता था, बनाने की प्रक्रिया बतायी गयी है। इसका जैन ग्रन्थाउसकी विधि इस छोटे से ग्रंथ से बनाई गई है। यह वली . 362 में उल्लेख है। प्रकरण अप्रकाशित है। 18