Book Title: Jain Dharm Ki Parampara Author(s): Narayanlal Kachara Publisher: Narayanlal Kachara View full book textPage 1
________________ जैन धर्म की परंपरा डॉ. नारायण लाल कछारा जैनधर्म का प्राचीन नाम श्रमण कहा जाता था। सर्वप्रथम "जैन धर्म" किया। इसे जिन धर्म की कहा गया । काल चक्र जैन धर्म के अनुसार सृष्टि अनादि काल से गतिशील है। इसकी न ही आदि है और न ही अंत । संसार के अपकर्ष व उत्कर्षमय काल को जैन धर्म में क्रमशः अवसर्पिणी व उत्सर्पिणी कहा गया है। अवसर्पिणी काल के छह विभाग हैं उन्हें आरा कहा गया है। सर्प की मुँह से पूंछ तक क्रमश: चौड़ापन कम होता जाता है इसी तरह इन विभागों का काल क्रमशः संकुचित होता चला जाता है। छह विभाग इस प्रकार हैं संस्कृति और आर्हत धर्म था महावीर काल में इसे निर्ग्रन्थ धर्म भी शब्द का प्रयोग जिनमद्रमणि श्रमाश्रमण ने विशेषावश्यक भाष्य में 1. सुषमा सुषमा 3. सुषम - दुःषमा 2. सुषमा 5. दुषमा 4. दुःषम - सुषमा 6. दुषम-दुषमा उत्सर्पिणी काल में ये ही छह विभाग उल्टे क्रम से होते है । सर्प की पूंछ से मुंह तक क्रमशः मोटापन होता है उसी तरह इन विभागों का काल क्रमशः वृद्धिगत होता चला जाता है। अवसर्पिणी व उत्सर्पिणी इन दोनों को कालचक्र कहते हैं। कालचक्र की अवधि बीस कोटि-कोटि सागर की होती है। सुषम- सुषमा काल चार कोटि-कोटि सागर । उस समय भूमि स्निग्ध थी। वर्ण, रस, गंध और स्पर्श अत्यन्त मनोज्ञ थे। कर्म भूमि थी किन्तुं अभी कर्मयुग का प्रवर्तन नहीं हुआ था । पदार्थ अति स्निग्ध थे। इस युग में मनुष्य तीन दिन के अन्तर से अरहर के दाल जितनी - सी वनस्पति खाते और तृत्प हो जाते। इनका जीवनकाल तीन पल्य था । अकाल-मृत्यु कभी नहीं होती थी । वातावरण की अत्यन्त अनुकूलता थी। उनका शरीर तीन गाऊ ऊँचा था । सुषमा काल तीन कोटि-कोटि सागर इसमें भोजन दो दिन के अन्तर से होने लगा। उसकी मात्रा बेर के फल जितनी हो गई। जीवनकाल दो पल्य का हो गया और शरीर की ऊंचाई दो गाऊ की रह गई। इनकी कमी का कारण था भूमि और पदार्थों की स्निग्धता की कमी । सुषमा दुषमा काल । दो कोटि-कोटि सागर । एक दिन के के समान हो गयी। जीवन काल एक पल्य का हो गया। अंतिम चरण में पदार्थों की स्निग्धता में बहुत कमी हुई आयी और इसी समय कुलकर व्यवस्था को जन्म मिला। अंतर से भोजन होने लगा। उसकी मात्रा आंवला शरीर की ऊँचाई एक गाऊ की हो गई। इसके सहज नियमन टूटने लगे तब कृत्रिम व्यवस्था यह कर्म युग के शैशवकाल की कहानी है। समाज संगठन अभी नहीं हुआ था यौगलिक व्यवस्था चल रही थी। एक जोड़ा ही सब कुछ होता था । न कुल था, न वर्ग और न जाति । जनसंख्या कम थी । माता-पिता की मौत से छह माह पहले एक युगल जन्म लेता, वही दम्पत्ति होता । जीवन की आवश्यकता बहुत कम थी। खेती, कपड़ा, मकान नहीं थे। भोजन, वस्त्र और निवास के साधन कल्प वृक्ष थे। गाँव नहीं थे स्वामी सेवक नहीं थे, समाज नहीं था संग्रह, चोरी, असत्य नहीं था। यह क्रम तीसरे आरे के अन्त काल तक चला। तब तक कल्प वृक्षों की शक्ति भी क्षीण हो गई। कुलकर व्यवस्था तीसरे आरे के अन्त में यौगलिक व्यवस्था टूटने लगी। जनसंख्या में वृद्धि हुई, साधन कम पड़ने लगे। इस स्थिति में आपसी संघर्ष और लूट-खसोट होने लगी। अपराधी मनोवृत्ति का बीज अंकुरित होने 1Page Navigation
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