Book Title: Jain Dharm Ki Parampara
Author(s): Narayanlal Kachara
Publisher: Narayanlal Kachara

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Page 5
________________ शाखाएं या गच्छ चार थे - नन्दितट, माथुर, बागड़ और लाट बागड़। माथुर संघ के साधु पिच्छी नहीं रखते थे। वि.सं. 526 में दक्षिण मथुरा में द्रविड़ संघ की उत्पत्ति हुई, इसका संस्थापक आचार्य पूज्यपाद का शिष्य वजनन्दि था। इस संघ के आचार्यों ने पद्मावती देवी की पूजा के प्रसार में बड़ा योग दिया। इस संघ के साधु जैन मंदिरों में रहते थे। उनका रूप मठाधिशों के जैसा हो गया था। इन्हीं का विकसित रूप भट्टारक पद है। वी.नि. 1975 से 2042 (वि.सं. 1505 से 1572) के बीच क्रांतिकारी तारण स्वामी हुए। उन्होंने मूर्तिपूजा के विरोध में एक क्रांति की और तारण तरण समाज की स्थापना की। इस समाज के अनुयायी मंदिरों के स्थान पर सरस्वती-भवन बनाने और मूर्तियों के स्थान पर शास्त्रों की प्रतिष्ठा करने लगे थे। उस समय भट्टारक शक्ति बलवान थी। भट्टारक सम्प्रदाय के शिथिलाचार पर धार्मिकों के मन में नाना प्रकार की प्रतिक्रिया हो रही थी। कुछ लोग आचार्य कुंदकुंद और अमृतचन्द्र के ग्रंथों का अध्ययन कर अध्यात्म की ओर झुके और वे अध्यात्मी कहलाने लगे। विक्रम की 17वीं शताब्दी में पंडित बनारसीदास जी का समर्थन पाकर इस अध्यात्मी परंपरा से दिगम्बर तेरापंथी का जन्म हुआ। बाद में इसे पं. टोडरमल और कानजी स्वामी ने आगे बढ़ाया। इस पंथ में (इसे मुमुक्ष संघ भी कहते हैं) दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों के लोग सम्मिलित हुए। इसे शुद्ध आम्नाय भी कहते हैं। इसमें निरपेक्ष तत्व (निश्चय नय) की प्रधानता है। तेरापंथ के अभ्युदय के साथ ही इत्तर पक्ष दिगम्बर बीसपंथी कहलाया और भट्टार युग का लोप हो गया। तेरापंथी पूजन में संचित पदार्थों और दूध का उपयोग नहीं करते। विद्वानों की मान्यता है कि बीसपंथ्ज्ञी सम्प्रदाय का अभ्युदय राजनीतिक परिस्थितियों का प्रभाव है जब जैनों ने अपने संरक्षण हेतु हिन्दुओं के अनेक विधि-विधान अपनाये। औरंगजेब के शासनकाल से 2-3 शताब्दियों तक दिगम्बर साधु नहीं थे। 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में आचार्य शांतिसागर से फिर मुनि परंपरा प्रारम्भ हुई। श्वेताम्बर सम्प्रदाय श्वेताम्बर सम्प्रदाय के साधु विक्रम की 7-8वीं शताब्दी तक कारण पड़ने पर ही वस्त्र धारण करते थे और वह भी केवल कटिवस्त्र। बाद में वे सफेद वस्त्र पहनने लगे। फिर जिन मूर्तियों में भी लंगोटे का चिह्न बनाया जाने लगा। इसके बाद उन्हें वस्त्र-आभूषणों से सजाने की प्रथा चली। वीर निर्वाण की नौवीं शताब्दी में चैत्यवास की स्थापना हुई। कुछ शिथिलाचारी मुनि उग्र-विहार छोड़कर मंदिरों के परिपार्श्व में रहने लगे। आचार्य देवर्द्धिगणि के बाद चैत्यवासी सम्प्रदाय को निर्बाध गति से पनपने का अवसर मिला। कठोर चर्या पालन करने वाले सुविहितमार्गी श्रमण चैत्यवासी श्रमणों के बढ़ते हुए वर्चस्व के सामने पराभूत हो गए। श्रमण वर्ग, यति वर्ग एवं भट्टारक वर्ग में सुविधावाद पनपने लगा। उग्र विहार चर्या को छोड़कर वे मठाधीश बन गये। जंत्र, मंत्र, तंत्रों के प्रयोग से वे राज-सम्मान पाकर राजगुरु कहलाने लगे। छत्र चमर आदि को निःसंकोच भाव से धारण कर वे राजशाही ठाट से रहने लगे। श्वेताम्बर (मूर्तिपूजक) सम्प्रदाय के मुख्य गच्छ 1. उपकेश गच्छ-इसका उदय भगवान पार्श्वनाथ में बताया गया है, उनका अनुयायी केशी इस गच्छ का नेता था। 2. खरतरगच्छ - इस गच्छ का प्रथम नेता गुजरात में वर्धमानसूरि को माना जाता है। 3. तपागच्छ - इस गच्छ के संस्थापक श्री जगचन्द्रसूरि थे उन्होंने वि.सं. 1285 में आयड़ में इसकी स्थापना की। 4. पार्श्वचन्द्र गच्छ - यह तपागच्छ की शाखा है। तपागच्छ के आचार्य पार्श्वचन्द्र ने वि.सं. 1515 में इसकी स्थापना की। ये नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और छेद ग्रन्थों को प्रमाण नहीं मानते थे।

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