Book Title: Jain Dharm Ki Parampara Author(s): Narayanlal Kachara Publisher: Narayanlal Kachara View full book textPage 9
________________ कर्नाटक प्रांत दिगम्बर सम्प्रदाय का मुख्य स्थान रहा है। आन्ध्र वंश कदम्ब वंश, चालुक्य वंश आदि ने जैन धर्म को प्रश्रय दिया । 1. गंगवंश ( 2री शताब्दी से 12वीं शताब्दी) । राजा मानसिंह द्वितीय के मंत्री चामुण्डराय ने श्रवणबेलगोला में गोमटेश मूर्ति की स्थापना की। 2. होयसल वंश (मैसूर प्रदेश) । यह वंश 12वीं शताब्दी तक जैन धर्म का समर्थक रहा । 3. राष्ट्रकूट वंश (नासिक) । राजा अमोघवर्ष प्रथम एक प्रतापी राजा हुआ । 4. कदम्ब वंश | छठी शताब्दी तक राज्य किया । 5. चालुक्य वंश (6वीं से (1) पश्चिमी चालुक्य द्वितीय जयसिंह तृतीय (2) कालाचुड़ी राज्य 6. विजयनगर राज्य । राजा हरिहर द्वितीय आदि । चौदहवीं शती में दक्षिण भारत में शैवों के प्रभाव से जैन धर्म बहुत क्षीण हो गया। 8वीं ई. तथा 10वीं से 12वीं ई.) । I राजा पुलकेशी (हर्षवर्धन का समकालीन), विक्रमादित्य द्वितीय आदि तैलप सोमेश्वर प्रथम व द्वितीय आदि । इस राज्य में बाद में जैन धर्म का विनाश हुआ। विदेशों में जैन धर्म भगवान ऋषभ ने बलख अटक, यवन, सुवर्णभूमि पण्हव आदि देशों में विहार किया। भगवान आरिष्टनेमि दक्षिणापथ के मलय देश गये थे। द्वारका-दहन के समय वे पल्हव नामक अनार्यदेश में थे। ईसा से चार हजार वर्ष पूर्व न केवल श्रमण - साधु धर्म प्रसार - परिरक्षण यात्रायें करते थे अपितु जैन व्यापारी भी एशिया के अनेक द्वीपों में व्यापार हेतु जाते थे। इस माध्यम से सुमेर मिश्र, बेबीलोन (इराक) सूबा, अफ्रीका, यूरोप एवं ऐशिया के क्षेत्रों में जैन संस्कृति का प्रचार हुआ। ये सुमेर सभ्यता के संस्थापक बने। क्वाजन कोरल के नेतृत्व में पणिसंघ वर्तमान अमरीकी क्षेत्र में ई.पू. 2000 में गया था और वहीं बस गया। यूनान और अन्य क्षेत्रों में जैन साधुओं का अस्तित्व बहुत प्राचीन काल से माना जाता है। भगवान पार्श्वनाथ के समय से लंका में जैन मंदिरों एवं मठों की सूचना भी मिलने लगी है। महावीर युग में इरान का राजकुमार आर्द्रक भारत आया था और जैन साधु बना था । विन्सेंट स्मिथ ने बताया है सम्राट सम्प्रति ने अरब, ईरान तथा अन्य देशों में अनेक जैन साधु एवं राजपुरुष जैन धर्म के प्रसार हेतु भेजे थे। इतिहासकार डा.जी. ई. मोर के अनुसार ईसा से पूर्व ईराक, शाम और फिलीस्तीन में जैन मुनि और बौद्ध भिक्षु सैंकड़ों की संख्या में फैले हुए थे। पश्चिमी एशिया मिस्त्र यूनान और इथोपिया के पहाड़ों और जंगलों में अगणित भारतीय साधु रहते थे। कालकाचार्य द्वितीय ने भी अपने शिष्यों को धर्म प्रचार हेतु ऐशियाई देशों (सुवर्ण भूमि, सुमात्रा) में भेजा था। उन्होंने स्वयं भी ईरान, जावा, सुमात्रा आदि की पदयात्रा की थी । वान क्रेमर के अनुसार मध्य-पूर्व में प्रचलित 'समानिया' सम्प्रदाय 'श्रमण' शब्द का अपभ्रंश है। पुराविदों के अनुसार इस्वी सन् की सहस्त्राब्दियों पूर्व श्रमण जैन संस्कृति विदेशों में व्याप्त थी । सिकंदर जैन मुनि कल्याण को अपने साथ तक्षशिला से यूनान ले गया था। जहाँ उन्होंने आसपास के प्रदेशों में श्रमण संस्कृति का प्रचार-प्रसार किया । इतिहासकार डा. कीथ के अनुसार बेरिंग जलडमरूमध्य से लेकर ग्रीनलैंड तक समस्त उत्तरी ध्रुवसागर के तटवर्ती क्षेत्रों में श्रमण संस्कृति के अवशेष प्राप्त होते हैं। इस संस्कृति ने मंगोलिया, चीन, तिब्बत और जापान को भी प्रभावित किया । इसका प्रभाव बेरिंग जलडमरूमध्य को पार कर उत्तरी अमेरिका भी पहुँचा आस्ट्रेलिया तथा अफ्रीका में भी श्रमण संस्कृति का प्रचार हुआ। मेजर जनरल फारलांग के अनुसार ओक्सियामा बैक्ट्रिया और कास्पियाना में महावीर के 2000 वर्ष पूर्व श्रमण संस्कृति का प्रचार हुआ था तुर्किस्तान में 17वीं शताब्दी में एक विशाल जैन मंदिर था और आचार्य 9Page Navigation
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