Book Title: Jain Dharm Ki Parampara Author(s): Narayanlal Kachara Publisher: Narayanlal Kachara View full book textPage 7
________________ (विदिशा), राजस्थान के जाबालिपुर और पंजाब में चिनाब के तटवर्ती पवैया जैसे विभिन्न स्थानों में जैन धर्म के सक्रिय अनुयायी थे। तीसरी शती ईस्वी से लेकर दक्षिणवर्ती प्रदेशों विशेषकर कान्नड़ भाषी प्रदेशों में जैन धर्म अधिक फला-फूला। मैसूर के गंग राजवंश की स्थापना का श्रेय जैनाचार्य सिंहनन्दि को दिया जाता है। वनवासी के कदम्ब नरेश भी जैन धर्मानुयायी रहे माने जाते हैं। इस राज्य के निर्ग्रन्थ (दिगम्बर), यापनीय, कूर्चक और श्वेतपट्ट (श्वेताम्बर) नाम के जैन सम्प्रदाय फल-फूल रहे थे। कदम्बों के बाद चालुक्य नरेश भी जैन धर्म के प्रश्रयादाता रहे। ईसा पूर्व 394 में प्रारम्भ हुए सिंहल नरेश पांडुकामय के राज्यकाल में सिहलद्वीप (श्रीलंका) में निर्ग्रन्थ (जैन) लोग विद्यमान थे। ईस्वी सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों में दक्षिण भारत में जैन धर्म उन्नत अवस्था में था। चोल, चेर, पाण्ड्य, केरलपुत्र एवं सत्यपुत्र नामक राज्यों में जैन धर्म के अनुयायी अच्छी संख्या में थे। जैन मुनियों का एक संघ द्रविड़ संघ के नाम से हुआ, जिसका प्रारम्भ दूसरी शती ईस्वी में आचार्य समन्तभद्र के समय में हो चुका था, यद्यपि उसकी पृथक स्थापना पाँचवी या छठी शताब्दी में हुई बतायी जाती है। छठी-सातवीं शती में तमिल प्रदेश में शैव नयनारों और वैष्णव अल्वरों के हाथों जैनधर्म पर भयंकर अत्याचार भी हुए। आठवीं से दसवीं पर्यन्त दो शताब्दियों में राष्ट्रकूट नरेश जैनधर्म के प्रति अति सहिष्णु थे, कुछ राजाओं ने जैन धर्म को अंगीकार कर लिया था। उस काल में उस क्षेत्र में जैन धर्म का प्रायः कोई प्रबल प्रतिद्वन्द्वी नहीं था तथा सम्पूर्ण जनसंख्या का प्रायः एक-तिहाई भाग महावीर का अनुयायी था। दसवीं से तेरहवीं शती राजपूतकाल में राजा जैन धर्म के प्रति सहिष्णु थे और कई राजे और सामन्त जैन धर्मावलम्बी रहे। यहाँ से प्रारम्भ मध्यकाल में ब्राह्मण और हिन्दूधर्म का व्यापक प्रभाव रहा, बौद्धधर्म का प्रायः सर्वथा नामशेष हो गया परन्तु जैन धर्म अपनी स्थिति बनाये रखने में सफल रहा। इस काल में गुजरात जैनधर्म का मुख्य गढ़ था। कुमारपाल जैसे जैन नरेश, विमलशाह, वस्तुपाल और तेजपाल जैसे जैन सेनापति और मंत्री तथा कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र हुए । मालवा और राजस्थान भी जैनधर्म के गढ़ थे। दक्षिण भारत में शैव और वैष्णव सम्प्रदायों के प्रभाव से जैन धर्म का महत्त्व घटता गया। तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ से इस्लाम के भारत में आगमन से जैनधर्म के प्रभाव और उसके अनुयायियों की संख्या में हास हुआ। उस समय दिगम्बर सम्प्रदाय के मुख्य गढ़ कर्नाटक, महाराष्ट्र, पूर्वी राजस्थान, मध्य भारत और बुन्देलखण्ड थे और श्वेताम्बर सम्प्रदाय के मुख्यगढ़ गुजरात, सौराष्ट्र, पश्चिमी मालवा एवं पश्चिमी राजस्थान थे। मुसलमान शासकों में सर्वाधिक सहिष्णु मुगल बादशाह रहे। अकबर और उसके पुत्र जहांगीर ने अनेक जैन गुरुओं का सम्मान किया। शाहजहाँ ने कुछ अंशों में इस नीति का उल्लंघन किया और औरंगजेब ने उसे पूरा उलट दिया। परन्तु जैन अनुयायी अपनी शांतिप्रिय नीति के कारण सुरक्षित रह गये। अठारहवीं शताब्दी में राजपूत राज्य में जयपुर जैनधर्म का प्रमुख गढ़ था परन्तु कतिपय पथ भ्रष्ट एवं धर्मान्ध हिन्दुओं के हाथों जैनों को निर्दय अत्याचार सहने पड़े। जैन विद्वान, साहित्यकार एवं संत पुरुष पं. टोडरमल को मिथ्या आरोप लगाकर हाथों के पैरों तले कुचलवा दिया गया। मध्य युग में जैनियों की संख्या का निरन्तर हास होता रहा और सुदीर्घ काल तक जो इस महादेश का एक प्रधान धार्मिक समाज रहा था वह अब घटकर जनसंख्या का एक प्रतिशत से भी कम रह गया है। महावीर के पश्चात् जैन धर्म की ऐतिहासिक स्थिति (अ) उत्तर भारत 1. बिहारPage Navigation
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