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थे। दो ग्राम या बस्तियों का सम्बन्ध, 'मित्रतापूर्ण' नहीं होता था । 'संग्राम' शब्द का अर्थ है दो ग्रामों का इकडा होना, जो युद्ध के रूप में ही होता था । इसी प्रकार संकुल शब्द का अर्थ है दो या अधिक कुलों का एकत्र होना जो "सारी व्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर डालता था। अब भी मानव भौगोलिक परिधियों की उस थोथी अस्मिता को लिए हुए है।
विज्ञान अनुभवों रहा है। दूसरी
धारणाओं को
कि बालक उन
विद्या का क्षेत्र भी इन भूतों के प्रभाव से मुक्त नहीं है। के आधार पर प्रगति कर रहा है और नई-नई धारणाएं बना ओर धर्म संस्था पुरानी बातों को दुहरा रही है और नई मिथ्यात्व कह रही है । यथाशक्ति यह प्रयत्न किया जाता है 1 बातों को न सीखे और पुरानी धारणाओं से चिपका रहे । तर्क या अपनो बुद्धि का वहीं तक उपयोग करे जहां तक वह परम्परागत विश्वासों का समर्थन करती है। जो जातियां तथा राष्ट्र इन मानसिक परिधियों को लांघ गर, वे विश्व का नेतृत्व कर रहे हैं। दूसरी ओर उन धारणाओ से चिपके रहने वाले केवल धर्मस्थानों में बैठकर अपनी उत्कृष्टता की डोंगें हांकते हैं। प्रगतिशील विश्व में उनका कोई स्थान नहीं है। वे उन प्राणियों के समान हैं जो सूर्योदय होने पर किसी अंवरी जगह में जा छिपते हैं।
शवपूजा :
जीवन का अर्थ है शरीर और आत्मा का सम्बन्ध । जहाँ शरीर आत्मा के लिये होता है, आध्यात्मिक विकास में सहायता देता है, उस व्यक्तित्व को प्राणवान कहा जाता है। इसके विपरीत जहाँ शरीर अपने आप में साध्य बन जाता है, उसके लिये आत्मा की उपेक्षा होने लगती है, वहाँ चेतन के स्थान पर जड़ की उपासना प्रारम्भ हो जाती है। जीवन के स्थान पर मृत्यु की पूजा होने लगती है ।
व्यक्ति के समान धर्म, राजनीति, समाज आदि सभी क्षेत्रों में पूजा के दोनों रूप मिलते हैं। जो धर्म इस बात को ध्यान में रखकर चलता है कि जड़ चेतन के लिये है, बाह्य क्रियाकांड, वेशभूषा आदि बातें आत्मा के विकास के लिये हैं। साथ ही जब यह देखता है कि वे आत्म-विकास में बाधा डाल रही हैं, मिथ्या अहंकार तथा राग-द्वेष को बढ़ा रही हैं तो उन्हें परिस्थिति के अनुसार बदलने या छोड़ने के लिये तैयार रहता है; उसकी शक्ति क्षीण नहीं होती। इसके विपरीत जो धर्म रूढ़ि तथा परम्परा के नाम महत्व देने लगता है तब उसकी प्राणशक्ति क्षीण होती चली
पर इन बातों को जाती है। वह