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[ ३७ ] बौद्ध-पुछो डसेहि मकसेहि, अरमास्मि प्रहावने । नागो संगामसीसे व, सतो तत्राधिवासये।
[थेर० ३४ जैन-पुट्ठो य दंसमसएहि, समरे व महामुणी। नागो संगामसीसे बा, सूरो अभिहणे परं॥
[उत्तरा० २०१०] इस प्रकार दोनों संस्कृति के नियम-उपनियम अधिकांशतः एक सरीखे हैं। दोनों संस्कृतियों के साहित्य का गहराई से अनुशीलन करने से मालूम होता है कि इन दोनों में कितना सामञ्जस्य है। प्रस्तुत निबंध में जैन वाङ्मय के दशवेकालिक सूत्र के भिक्खुअज्मयण की प्रत्येक गाथा के साथ सौगत प्रतिपादित गाथाओं से तुलना की जा रही है। ___ जैन वाङ्मय में साधु के लक्षण बतलाते हुए कहा गया है-मुनि वह है जो तीर्थंकरों के उपदेशों पर अभिनिष्क्रमण कर अपने मन को समाधि में रखे, स्त्रियो के वशवर्ती न हो और न ही वमे हुए भोगों को वापिस स्वीकार करे।
निक्खम्ममाणाए' बुद्धवयणे, निच्चं चित्तसमाहिओ हविज्जा।। इत्थीण वसं न यावि गच्छे, वंतं नो पडियायई जे स भिक्खू ॥
बौद्ध साहित्य में उपर्युक्त गाथा के प्रथम चरण निक्खम्ममाणाए बुद्धवयणे से साम्य रखने वाले पद्य इस प्रकार हैं____संसेवित' बुद्धसीलिना, निव्वाणं न हि तेन दुल्लमं ।
उपर्युक्त गाथा के दूसरे और चौथे अर्थात् 'निच्चं चित्तसमाहिओ हविज्जा' और 'वंतं नो पडियायई जे स भिक्खू' को निम्नोक्त गाथा से मिलाएं
"सन्तकायो' सन्तवाचो, सन्तवा सुसमाहितो।
वन्तलोकामिसो मिक्ख, उपसन्तोति दुञ्चति ।। उपर्युक्त गाथा के तीसरे चरण 'इत्थीण वसं न यावि गच्छे' की तुलना में :
सुख सुपन्ति मुनयो, ये इत्वीसु न बज्मरे ।
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१-दशवकालिक अ० १० गा० १ ३-धम्मपद मिक्खु. गा० १६ ।
२-थेरगाथा ७४ । ४-येर गाथा १४०