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मोर वा ममता को स्वाग देन है। अतः साधक के लिये उनका व्युत्सर्ग जबश्यक है। संयम के उपकरण के रूप में साधक होने पर भी ममत्व होने पर वे ही उसके बाचक बन जाते है, अतः उनसे भी ममत्व हटाने का अभ्यास करते रहना चाहिये ।
चौमा मकवान-त्वर्म है, इसका अर्थ है अनशन। यह दो प्रकार कम है : (१) इत्वरिक कुछ समय के लिये और (२) यावत् कथिक अर्थात् सारे जीवन के लिये । प्रथम अर्थात् इत्वरिक का अभ्यास सदा करते रहना चाहिये और जब शरीर शिथिल हो जाय तो सदा के लिये भोजन छोड़ देना चाहिये। इसे यावत् कचिक कहा जाता है। जैन साधकों के ऐसे अनेक उदाहरण है जिन्होंने स्वेच्छापूर्वक भोजन पानी छोड़ दिया और शान्तिपूर्वक प्राण दे दिये।
उपर्युक्त चार भेद बाह्य व्युत्सर्ग के हैं। उनमें साधक शरीर, सम्पत्ति, गण तथा भोजन के रूप में बाहूय वस्तुओं का परित्याग करता है। इनके अतिरिक्त अभ्यंतर व्युत्सर्ग के तीन मेद हैं :
१. कषाय-ब्युस्सर्ग - कषाय का अर्थ है आत्मा को कलुषित करने वाले मनो विकार । वे चार हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ । इनका परित्याग करना अर्थात् मन पर उनका प्रभाव न होने देना कषाय- व्युत्सर्ग है ।
१ संसार - म्युत्सर्म - जैन धर्म में मोह या ममता को संसार का कारण माना गया है। उसके दो मुख्य भेद है-राग और द्वेष । उन्हें छोड़ना, प्राणी मात्र के प्रति समता रखना व किसी के प्रति आसक्ति का न होना संसारसर्ग है।
२. कर्म - व्युत्सर्ग -- कर्म का अर्थ है आत्मा की वह मलिनता जो मन, वचन, और शरीर की विविध प्रवृत्तियों से उत्पन्न होती है उसे तपस्या द्वारा दूर किया जाता है ।
जैन साधना के दो भेद है-संबर और निर्जरा । संबर का अर्थ है आत्मा की मलिन करने वाली समस्त प्रवृत्तियों को रोकना । निर्जरा का अर्थ है। संचित मालिन्य को हटाना । प्रस्तुत तीन भेदों में प्रथम दो का सम्बन्ध संवर के साथ है और तृतीय का निर्जरा के साथ । प्रस्तुत लेख का मुख्य प्रतिपाद्य काय - व्युस्सर्ग या कायोत्सर्ग है ।
शरीर - व्युत्सर्ग के दो रूप हैं। पहला रूप शरीर से राग या ममत्व छोड़ने का अभ्यास है। इसके लिये साधक शरीर के अभ्यंतर स्वरूप का चिन्तन करता है । सोचता है-मैं जिस शरीर के प्रति आसक्ति दिखा रहा हूँ वह कितना अशुचि है ? मूत्र, पुरीष, बता, अस्थि आदि दुर्गन्धित तथा अपवित्र वस्तुओं से