Book Title: Jain Darshan aur Sanskruti Parishad
Author(s): Mohanlal Banthia
Publisher: Mohanlal Banthiya

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Page 164
________________ [ १४१ ] अनेकों बड़े-बो तुम्काल पड़े एवं राजनेतिक उपल-पुथल हुये, इसलिये महावीर वाणी का बहुत थोड़ा अंश ही हमें प्राप्त है। केवली होने के बाद ३० वर्ष तक वे अनेक स्थानों में घूमते हुए उपदेश देते रहे अतः इतने लम्बे समय में अवश्य ही उन्होंने लाखों करोड़ों श्लोक परिमित कल्याणकर वाणी प्रकटित की होगी। अर्य रूप से तीर्येकर जो उपदेश देते है उसे उनके प्रधान शिष्य गणधर सूत्र रूप में संकलित करते हैं। वे सूत्र द्वादशांगी गणिपिटक के नाम से . प्रसिद्ध है। उनमें से १२वाँ अंग दृष्टिवाद तो विच्छेद होते-होते लुप्त-सा हो गया, अवशेष ११ अंग यत्किंचित् रूप में अब भी प्राप्त है। आश्चर्य की बात है कि मुनि-आचार का सर्वप्रथम अन्य याने ११ अंगों में से प्रथम मंग सूत्र आचारांग का भी एक अध्ययन शताब्दियों से अप्राप्य हो गया और १.वाँ प्रश्न व्याकरण सूत्र नामक अंग ग्रन्थ तो मूलरूप में कुछ भी सुरक्षित नहीं रहा। चौथे अंग समवायांग सूत्र में और नन्दी सूत्र में १०वें अंग प्रश्न व्याकरण के विषय निरूपण का जो विवरण प्राप्त है उसे नीचे दिया जा रहा है। उससे यह स्पष्ट हो जायगा कि हम जिसे वर्तमान में प्रश्न व्याकरण सूत्र कहते हैं वह समवायांग और नन्दी सूत्रोक्त विवरणवाला नहीं है। समवायांग सूत्रोक्त विवरण 'से किं तं पण्हावागरणाणि ? पण्हावागरणेसु अटठुत्तरं पसिणसयं अत्तरं अपसिणसयं अहत्तरं पसिणापसिणसयं विज्जाइसया नागसुवन्नेहिं सद्धिं दिव्या संवाया आघविज्जति, पहावागरणदसासु णं ससमयपरसमयपण्णवयपत्तेअबुद्धविविहत्यभासाभासियाण अइसयगुणउवसमणाणप्पगारआयरियभासि. याणं वित्थरेणं वीरमहंसीहिं विविहवित्यरभासियाणं च जगहियाणं अद्दागंगुहबाहुअसिमणि-खोमआइञ्चभामियाणं विविहमहापसिण-विज्जामणपसिणविज्जादेवययोग-पहाण-गुणप्पगासियाणं सन्भूय-दुगुणप्पभावनरगणमइ-बिम्हय कराणं अईसयमईयकालसमयदमसमतित्यकल्तमस्स ठिाकरणकारणार्ग दुरहिमगदुरवगाहस्स सम्बसवन्नुसम्मअस्स अबुहजण-विबोहणकरस्स पच्चक्खयपच्चयकराणं पाहाणं विविहगुणमहत्था जिणवरप्पणीया आपविजति पण्हावागरणेसुण परित्ता बायणा संखेज्जा अणुओगदारा जाव संखेज्जाओ संहणीओ, से णे अंगठयाए दसमे अंगे एगे सुरक्वंधे पणवालीसं उद्देसणकाला षणयालीसं समुहे सणकाला संखेज्जाणि पयसयसहस्साणि पयग्गेण प०, संखेज्जा अक्सरा अणन्ता गमा जाव चरपकरणपल्वणया आषविज्जति । सेतं पाहावागरणाई ॥१०॥ (त्र १ )

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