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अभिव्यक्ति हुई है । वहाँ बताया गया है कि ऋग्वेद के द्वारा साधक इस लोक को, यजुर्वेद के द्वारा अन्तरिक्ष को और सामवेद के द्वारा तृतीय ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है। इनसे परब्रह्म की प्राप्ति नहीं होती ।
इससे साधक के
समग्र ॐकार से ध्यान में उस लोक की प्राप्ति होती है, जो शांत, अजर, अमर, अभय और पर है अर्थात् उससे परब्रह्म की प्राप्ति होती है । ' नारद चारों वेदों और अन्य अनेक विद्याओं का पारगामी था । उसने सनत्कुमार से यही कहा - "भगवन् ! मैं मंत्रवित् हूँ, आत्मवित् नहीं हूँ ।" मन में वेदों के प्रति कोई उत्कर्ष की भावना उत्पन्न नहीं होती । महाभारत और अन्य पुराणों में से क्रान्त हुई है। उनमें ऐसे अनेक स्थल हैं, जहाँ आत्म विद्या या मोक्ष के लिए वेदों की अमारता प्रगट की गई है। श्वेताश्वतर के भाष्य में आचार्य शंकर ने ऐसा एक प्रसंग उद्धृत किया है। वहाँ भृगु अपने पिता से कहता है- 3
यह भावना
"त्रय धर्ममधर्मार्थ,
किपाकफलसन्निमम् ।
नास्ति तात सुखं किञ्चिदत्र दुःखशताकुले । तस्मान्मोक्षाय यतता, कथं सेव्या मया त्रयी ॥'
""
at धर्म अधर्म का ही हेतु है । यह किंपाक ( सेमर ) फल के समान
कुछ भी सुख नहीं है ।
है । हे तात! सैकड़ों दुःखो से पूर्ण इस कर्मकाण्ड में अतः मोक्ष के द्वारा प्रयत्न करने वाला मैं त्रयी धर्म का सकता हूँ ?
किस प्रकार सेवन कर
गीता में भी यही कहा गया है कि नयी धर्म ( वैदिक कर्म ) में लगे रहने वाले सकाम पुरुष संसार में आवागमन करते रहते हैं । ४ यज्ञों को श्रेय मानने वाले मूढ़ होते हैं । " आत्म विद्या के लिए वेदों की असारता और यशों के विरोध में आत्मयज्ञ की स्थापना किसी अवैदिक धारा की ओर संकेत करती है ।
१- प्रश्नोपनिषद ५/७
२-- छन्दोग्योपनिषद ७१११२-३
३- श्वेताश्वतर पृष्ठ २३ : गीता प्रेस गोरखपुर, तृतीय संस्करण ।
४ - भगवद्गीता ६।२१
५- मण्डकोपनिषद् १२२ ७, १०
६- छान्दोग्योपनिषद् ८१५/१, बृहदारण्यक २२६-१०