Book Title: Jain Center Columbia SC 1997 05 Mahavira Swami Murti Pratistha
Author(s): Jain Center Columbia SC
Publisher: USA Jain Center Columbia SC

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Page 14
________________ प्रतिष्ठा का महत्व जैन समाज में सबसे बड़ा महोत्सव प्रतिष्ठा का होता है। पंचम काल जन्मकल्याणक में भरत क्षेत्र में तीर्थकरों का जन्म नहीं होता है। चतुर्थकाल में ही प्राची के गर्भ से सूर्य के समान जननी के गर्भ में धर्म सूर्य तीर्थकरों के पंच कल्याणक देवो, मनुष्यों द्वारा मनाये जाते है उसी जिनेन्द्र भगवान का जन्म होता है. तीनों लोको में आनन्द छा जाता है परम्परा में इस काल में तीर्थकर की मूर्तियों की प्रतिष्ठा हेत् । भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी, और कल्पवासी देवों के भवनों में पंचकल्याणक किये जाते है। और जैन लोग मूर्तियों को, साक्षात् अनहद बाजे बजते है। भगवान के जन्म होते ही पुनः सौधर्म इन्द्र भगवान मानकर दर्शन और पूजन करते है। का आसन कम्पायमान होता है। उसकी अवधि में बात याद आती है तीर्थकर भगवान की पूजा करने वाले को स्वर्ग और मोक्ष की। कि "संभावयामि नेदृक्षं प्रभावं भुवनत्रये प्रभु तीर्थङ्करादन्यम्" भरत प्राप्ति होती है जैसा कि दर्शन मात्र से भी कल्याण होना बताया है क्षेत्र में तीर्थङ्कर भगवान का जन्म हुआ है। कुबेर को आज्ञा देता है कि " नगर की रचना करो, रत्न वृष्टि करो" । सौधर्म ऐरावत हाथी दर्शनं देव देवस्य दर्शनं पाप नाशनम् । पर बैठकर नगर की परिक्रमा करता है। फिर राजा के महल में जाकर दर्शनं स्वर्गसोपानं दर्शनं मोक्ष साधनम् ।। शची द्वारा प्रसुतिगृह से सौधर्म तीर्थङ्कर बालक को लाकर पाण्डुक अर्थात् --उन प्रतिष्ठित मूर्तियों के दर्शन करने से जन्म २ के शिला पर ले जाकर १००८ कलशों से अभिषेक करते है। सौधर्म पाप नाश होकर स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति होती है। आचार्य कहते है भगवान को ले जाते है । ईशानइन्द्र प्रभू पर छत्र लगाते है । कि भगवान के दर्शन नहीं करने वाला मनुष्य पशु के समान माना सनत्कुमार और महेन्द्र प्रभू को चंवर ढोरते हए आते है। भगवान जाता है। को पालने मे झलाते है । बालक्रीडा करते है । जैन समाज में स्थान २ पर मन्दिरों का निर्माण कर मूर्तिओं की राज्याभिषेक प्रतिष्ठा की जाती है। प्रतिष्ठा महोत्सव में भाग लेने वाले, दान देने भगवान के राज्याभिषेक के समय ३२ हजार मुकुट बद्ध राजा वाले, मन्दिर बनाने वालों को तीर्थकर गोत्र का बंध होता है। देश विदेश से आकर अपनी भेट चढ़ाते है । शची क्षीर सागर का भगवान के पांच कल्याणक होते है । गर्भ कल्याणक, जन्म जल लाकर इन्द्र को देती है। उस पवित्र जल से राज्याभिषेक होता है कल्याणक. तप कल्याणक. जान कल्याणक और मोक्ष कल्याणक ये । तीर्थडर के पिता राजतिलक कर राजमकट भगवान को अर्पण पांचो कल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव में होते है। इन्द्र इन्द्राणियों के रूप करते है। में भक्त जन भगवान का कल्याणक महोत्सव मनाते है। भगवान की भगवान धर्मनीति + राजनीति का उपदेश देते है। वैराग्य --- भक्ति में अनन्त शक्ति है और उस अनन्त शक्ति से मुक्ति प्राप्त होती। आदिनाथ को नीलांजना का नृत्य और उसकी मृत्यु पर संसार की है। इसी भक्ति के कारण जैन लोग तीर्थङ्करों का पंचकल्याणक असारता का अनुभव होता है। लौकान्तिक देवों द्वारा सम्बोधन करने मनाकर बड़ा भारी उत्सव करते है। पर वैराग्य को प्राप्त होते है। गर्भ कल्याणक तप कल्याणक--भगवान की पालकी को उठाकर लौकान्तिक सौधर्म इन्द्र अवधि ज्ञान से तीन लोक के स्वामी तीर्थङ्कर का देव तपोवन में ले जाते है जहाँ भगवान ध्यानस्थ बैठकर अपने ही भूलोक मे अवतरित होने की बात कुबेर को बताता है । कुबेर नगरी हाथों से पंच मष्ठी केशलौंच करते है। की रचना कर रत्नों की वर्षा करता है । तीर्थकर की माता को सोलह सिद्धों की साक्षी में मुनि दीक्षा ग्रहण करते है। ज्योंही भगवान दीक्षा स्वप्न आते है उसका फल तीर्थकर के पिता बताते है कि तीन लोक लेते है उन्हें मनःपर्यय ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। तपश्चरण के के स्वामी भगवान का अवतार होगा। ५६ कुमारिकाएं माता की सेवा फलस्वरूप चार घातियाँ कर्मों का नाश हो जाता है। पूर्ण संयमित करती है। अष्ट कुमारी देवियां सुगन्धित वस्तुओं द्वारा माता का गर्भ जीवन व्यतीत करते हुए निर्जन वन में घोर तपस्या करते है। आहार शोधन करती है। रहस्य भरे सिद्धान्त के प्रश्न पूछ कर माता के गर्भ चर्या के लिए नगर में आते है जैसे भगवान आदिनाथ को छः माह में बालक होने का निश्चय करती है। जिस तीर्थङ्कर की प्रतिष्ठा होती है तक आहार नहीं मिला तत् पश्चात् राजा श्रेयाँस के यहाँ एक वर्ष बाद उसी के नाम से गर्भकल्याणक की क्रियाएं की जाती है जैसे अक्षय तृतीया के दिन इक्षुरस का आहार होता है। जैन धर्म में त्याग आदिनाथ, शान्तिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर भगवान आदि । और तपस्या का बहुत महत्व है। तीर्थङ्कर भगवान बनने के लिये भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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