Book Title: Jain Bal Shiksha Part 2
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 47
________________ पढ़िवे में मन दीजिये, विद्या हो भरपूर । गुरू को सेवा कीजिए, मन तें छल करि दूर ॥ नहि धन धन है बुध कहें, चोर सकै नहिं चोर हूं, धन में विद्या धन बड़ो, रहत पास सब काल | देय जितो बाढ़े तितो, छोर न सकत नृपाल || बिद्या पातत्वाद् विद्या वित्त अनूप | छोरि सकै नहि भूप ॥ ददाति विनयं, विनयाद् याति पात्रताम् धनमाप्नोति, धनाद् धर्मः ततः सुखम् ॥ - विद्या से विनय, विनय से पात्रता (योग्यता ), पवित्रता Jain Education International से धन, धन से धर्म और धर्म से सुख मिलता है । [ ४२ ] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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