Book Title: Jain Bal Shiksha Part 2
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 46
________________ विद्या ___ विद्या धन उद्यम बिना, कही जु पावै कौन । बिना डुलाए ना मिले, ज्यों पंखा को पौन ।। करत - करत अभ्यास के, जड़मति हो सुजान । रसरी आवत - जात ते, सिल पर पद्रत निसान ।। सरसुति के भण्डार की, बड़ी अपूरब बात । ज्यों - ज्यों खरचै त्यों बढ़े, बिन खरचे घटिजात ।। नहीं रूप कछ रूप है, विद्या रूप - निधान ! अधिक पूजियत रूप ते, बिना रूप विद्वान ।। विद्या धन सब धनन तं, अति उत्तम ठहराइ । छोने न कोऊ सकत है, चोर न सकत चुराइ ॥ उत्तम विद्या लीजिए, जदपि नीच पै होइ। पड़ो अपावन ठौर में, कंचन तजत न कोई ॥ [ ४१ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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