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मैंने इस ग्रन्थ मे इस बात को प्रदर्शित करने की चेष्टा की है कि मानव अपने जीवन को विभिन्न अवस्थाओं में रह कर किस प्रकार धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टि से अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए आचरण और व्यवहार करे | इस दृष्टि से जैन-अगसाहित्य पर कार्य अभी प्राय नही हुआ है ।
गुरुवर डॉ० रामजी उपाध्याय, अध्यक्ष, सस्कृतविभाग, सागर विश्व - विद्यालय ने मुझे जैनधर्म एव जैनदर्शन पर शोधकार्य करने की सतत प्रेरणा प्रदान की । प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखन और प्रकाशन मे भी उनका मार्गदर्शन हमे प्राप्त हुआ । इसलिए मैं उनके प्रति अपनी कृतज्ञता अभिव्यक्त करता हूँ | मैं आदरणीय प० श्री सुखलालजी सघवी, गुरुवर प० श्री कैलाशचन्द्र शास्त्री, श्री प० दलसुख मालवणिया, उपाध्याय श्री अमरमुनि, पुरातत्त्ववेत्ता पन्यास श्री कत्याणविजय गणी आदि का अत्यन्त आभारी हूँ, जिनके आगमसम्वन्धी ज्ञान एव प्रकाशित रचनाओं से मुझे बहुमूल्य महायता प्राप्त हुई ।
मैं हिन्दी भाषा और साहित्य के गहन चिन्तक और कवि, जैनदर्शन और सस्कृति के प्रति प्रगाढ आस्थावान्, तथा विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ० शिवमङ्गलसिंह 'सुमन' का अत्यन्त आभारी हूँ जिन्होंने मेरे अनुरोध को स्वीकार कर इस पुस्तक का 'पुरोवाक्' लिख देने का कप्ट किया ।
अन्त में, मैं आदरणीय राष्ट्रसन्त कविरत्न उपाध्याय श्री अमरमुनिजी पुन के प्रति अपनी कृतज्ञता अभिव्यक्त करता हूँ; जिन्होने भगवान् महावीर की २५०० वी निर्वाण शताब्दी के उपलक्ष्य मे इस ग्रन्थ को 'सन्मति ज्ञानपीठ' के माध्यम से प्रकाशित कर मुझे अनुगृहीत किया ।
सरीरमाहु नावत्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ । ससारो अण्णवो वृत्तो, ज तरंति महेसिणो ॥
[ महावीर वचनामृत - उत्तराध्ययन २३।७६ ]
( शरीर को नौका कहा गया है, आत्मा को नाविक कहा गया है और ससार को समुद्र कहा गया है, जिसे महर्षिगण पार कर जाते है )
अध्यापक आवासगृह, उज्जैन ( म०प्र० ) । पर्य पण पर्व
दिनाक २०-६-१६७४
विनीत - हरीन्द्रभूषण जैन