Book Title: Jain Achar Samhita
Author(s): Saubhagyamal Jain
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 6
________________ जैन आचारसंहिता ४०६ का त्याग तो करना ही पड़ता है लेकिन इतना ही पर्याप्त नहीं, साधुता में तेज तभी आता है जब अन्तर् में जड़ जमाये हुए विकारों पर विजय पा ली जाती है । मान-अपमान, निन्दास्तुति, जीवनमरण में भेद नहीं माना जाता है ।" तिरस्कार को भी अमृत मानकर पान किया जाता है और स्वयं कटुवचन बोलकर दूसरे का तिरस्कार नहीं किया जाता है । पृथ्वी के समान बनकर सब अच्छावुरा, हानि-लाभ आदि सहन किया जाता है । २ आत्मसाधना करते हुए भी साधु संसार की भलाई से विमुख नहीं होता है । वह तो आध्यात्मिकता की अखण्ड ज्योति लेकर विश्व मानव को सन्मार्ग का दर्शन कराता है। उसे अपने दुःख, पीड़ा, वेदना का तो अनुभव नहीं होता लेकिन परपीड़ा उसके लिए असह्य हो जाती है । वह भलाई करते हुए भी अहंकार नहीं करता है कि मैंने अमुक कार्य करके दूसरों का भला किया है । किन्तु सोचता है कि अपनी भलाई के लिए मेरे द्वारा दूसरे का भी भला हो गया है। इस प्रकार की साधना द्वारा साधु अपने जन्म-मरण का अन्त करता है और सिद्धि लाभ कर परमात्मपद प्राप्त कर लेता है । भगवान महावीर ने साधु आचार और साधु जीवन की मर्यादा की ओर संकेत करते हुए कहा है - श्रमण के लिए लाघव - कम से कम साधनों से जीवन निर्वाह करना, निरीहता - निष्काम वृत्ति, अमूर्च्छा - अनासक्ति, अप्रतिबद्धता, अक्रोधता, अमानता, निष्कपटता, और निर्लोभता के द्वारा साधनात्मक मार्ग प्रशस्त होता है । इस कथन के आधार पर जैनागमों में साधु के आचार-विचार की विस्तार से प्ररूपणा की गई है। संक्षेप में यहाँ साधु आचार का दिग्दर्शन कराते हैं । साधु आचार की रूपरेखा पंच महाव्रत - अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह । पांच समिति – ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदाननिक्षेपणसमिति, परिष्ठापनिकासमिति । तीन गुप्ति-- मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, काय गुप्ति । द्वादश अनुप्रेक्षा-अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोकभावना, बोधिदुर्लभ, धर्मभावना । दस धर्म-क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम तप, त्याग, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्यं । पांच चारित्र - सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय, यथाख्यात । इस प्रकार से महाव्रत में लेकर चारित्र पर्यन्त साधु आचार की संक्षिप्त रूपरेखा है । इनका विवरण यथाक्रम से बतलाते हैं । पंच महाव्रत - पांच महाव्रत साधुता की अनिवार्य वृत्ति है । इनका भली-भाँति पालन किये बिना कोई भी साधु नहीं कहला सकता है । १. अहिंसा महाव्रत जीवन पर्यन्त के लिए सर्वथा प्राणातिपातविरमण । यानी त्रस और स्थावर सभी जीवों की मन, वचन, काय से हिंसा न करना, दूसरे से भी नहीं कराना और हिंसा करने वाले का अनुमोदन न करना । अहिंसा महाव्रत का पालन करने वाले के मन, वचन और काय सद्भावना से आप्लावित होते हैं । वह प्राणिमात्र पर अखण्ड करुणा की वृष्टि करते हैं । अतएव वह सजीव जल का उपयोग नहीं करते | अग्निकाय के जीवों की हिंसा से बचने के लिए अग्नि का किसी भी प्रकार से आरंभ १. समो निन्दापसंसासु तहा माणाव माणओ । २. पुढवीसमो मुणी हवेज्जा । - दशवै० १०।१३ ३. भगवती १/६ Jain Education International - उत्त० १६६१ आचार्य प्रव श्री आनन्द ऋ ست For Private & Personal Use Only diet Si फ्र आमिशन्देन आआनन्द अन्थ अभिन्दन www.jainelibrary.org

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