Book Title: Jain Achar Samhita
Author(s): Saubhagyamal Jain
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 12
________________ जैन आचारसंहिता जीवन निर्वाह, परिवार के पालन-पोषण के लिए अनिवार्य रूप से होने वाली हिंसा आरंभी हिंसा है । आजीविका चलाने के लिए कृषि, गोपालन आदि जो-जो उद्योग किए जाते हैं, उनमें हिंसा की भावना व संकल्प न होने पर भी अनिवार्यतः जो हिंसा होती है वह उद्योगी हिंसा कहलाती है । अपने प्राणों की रक्षा एवं परिवार, देश आदि की रक्षा के लिए प्रतिरक्षात्मक रूप में की जाने वाली हिंसा विरोधी हिंसा तथा निरपराध प्राणी को जानबूझ कर मारने की भावना से हिंसा करना संकल्पी हिंसा है । उक्त चारों प्रकार की हिंसा में से श्रावक संकल्पी हिंसा का तो पूर्ण रूप से त्याग करता है और शेष तीन प्रकार की हिंसा में से यथाशक्ति त्याग करते हुए अहिंसाणुव्रत का पालन करता है । संकल्पी हिंसा का त्याग करने से भी बहुत सी हिंसा से बचा जा सकता है । अहिंसाव्रत का पालन करने के लिए निम्नलिखित पांच अतिचारों (दोषों) से बचने के लिए श्रावक को सदा ध्यान रखना चाहिए --- बंध - किसी जीव को बांधना, जैसे तोता आदि को पिंजरे में बन्द कर देना । वध - किसी जीव को मारना पीटना । ४१५ छविच्छेद -- किसी का अंग भंग करना, विरूप बनाना । अतिभार - घोड़े, बैल आदि पशुओं पर सामर्थ्य से अधिक बोझ लादना, नौकरों से अधिक काम लेना । भक्तपान विच्छेद - अपने आश्रित प्राणियों को समय पर भोजन - पानी न देना । इसके सिवाय रात्रि में भोजन आदि का त्याग करना भी अहिंसाव्रत की भावना के लिए आवश्यक है । २. सत्याणुव्रत दृष्टि से अनर्थों की सम्भावना हो), बोलने के प्रति सावधान रहना । सत्पुरुष और लोक व्यवहार में स्थूल ( ऐसा असत्य जिससे सामाजिक एवं राष्ट्रीय असत्य (झूठ बोलने का सर्वथा त्याग करना एवं सूक्ष्म असत्य यद्यपि स्थूल और सूक्ष्म असत्य में भेद करना कठिन है, लेकिन जिसे असत्य माना जाता है, ऐसे असत्य का त्याग करना आवश्यक है । सत्य व्रत का भली-भाँति पालन करने के लिए निम्नलिखित पांच दोषों पर ध्यान देना जरूरी है ( १ ) सहसाभ्याख्यान - बिना विचारे असावधानी पूर्वक दूसरे पर मिथ्यारोपण करना । ( २ ) रहोभ्याख्यान - किसी की गुप्त बात को प्रगट कर देना । (३) स्वदारमंत्र भेद - पत्नी के साथ एकान्त में हुई मंत्रणा को दूसरे के सामने कहना अथवा उसके साथ विश्वासघात करना । (४) मृषोपदेश - दूसरे को गलत सलाह देना, मिथ्या उपदेश करना । (५) कूटलेखकरण - जालसाजी करना, झूठे दस्तावेज आदि लिखना । इन कार्यों से सम्बन्धित अन्य प्रवृत्तियों जैसे आत्मप्रशंसा, परनिन्दा, ईर्षा, चुगली करना, आदि से बचने का ध्यान सत्यव्रती को रखना चाहिए। Jain Education International ३. अचौर्याणुव्रत स्वामी की आज्ञा के बिना किसी की वस्तु को न लेना अचौर्याणुव्रत कहलाता है । चोरी दो प्रकार की है— स्थूल चोरी और सूक्ष्म चोरी। जिस चोरी के कारण व्यक्ति चोर कहलाये, न्यायालय दण्ड दे और जो समाज में चोरी के नाम से कहलाये वह स्थूल चोरी है और रास्ते चलते-फिरते For Private & Personal Use Only २० 3 आचार्य प्रवास अगदी आआनन्द अन्थ ASPARA www.jainelibrary.org

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