Book Title: Jain Achar Samhita
Author(s): Saubhagyamal Jain
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 11
________________ आचार्यप्रव ROMसाचार्य श्रामानन्दमयन्थश्रामानन्द सन्थ ४१४ धर्म और दर्शन क VEAM श्रावक धर्म श्रमण साक्षात रूप से मोक्ष मार्ग के साधक होते हैं, वे पूर्ण मनोबल के साथ तृष्णा, भोगअभिलाषा एवं ममत्व का त्याग करते हैं। थावक साधुपद के उक्त आदर्शों की मर्यादा का निर्वाह करने में समर्थ न होने के कारण शनैः शनैः क्रम क्रम से मोक्षमार्ग पर अग्रसर होने का अभ्यास करते हैं। इसी दृष्टि से श्रावक वर्ग के लिए महाव्रतों के अनुसरण करने में सुविधा की दृष्टि से आचार धर्म के नियम बतलाये हैं। श्रावक वर्ग के लिए बताये गये आचार का यहां संक्षिप्त स्वरूप प्रस्तुत किया जाता है । श्रावक का पद श्रमण के समकक्ष तो नहीं है किन्तु अपने आप में महत्त्वपूर्ण है। हर कोई व्यक्ति श्रावक कहलाने का अधिकारी नहीं हो सकता है लेकिन जिसमें श्रावक के योग्य गुण हैं और जो व्रतों को धारण करता है वह श्रावक बन सकता है। इसीलिए आचार्यों ने थावक शब्द के प्रत्येक अक्षर का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा है' --- श्रा-जो सर्वज्ञभाषित तत्व पर श्रद्धा रखता है। व-सत्पात्रों में दान रूप बीज बोता है। क-कर्मरूप मलिनता को दूर हटाता है। वह श्रावक कहलता है । श्रमणों-साधुओं की उपासना करने, सेवा करने के कारण श्रावक को श्रमणोपासक भी कहा गया है। श्रावक अल्प-आरम्भी, अल्प-परिग्रही, धर्म भावना युक्त, धर्म का अनुसरण करने वाले, धर्म की प्रभावना करने वाले, सुशील, सुव्रती, धर्म में आनन्द मानने वाले होते हैं। श्रावक के आचार को 'अणुव्रत' कहते हैं। श्रावक अपनी शक्ति, मर्यादा आदि को ध्यान में रखकर त्यागमार्ग की ओर अग्रसर होने के साथ व्रतों को अणुरूप में अर्यात् आंशिक रूप में, मर्यादा व छूट के साथ स्वीकार करता है, इसलिए वह अणुव्रती कहलाता है । श्रावक के लिए निम्न प्रकार से बारह व्रतों का विधान किया गया पांच अणुव्रत-हिंसा, झूठ, चोरी आदि का आंशिक रूप से त्याग करना। तीन गुणवत-अणुव्रतों के पालन में विशेष सहायता करने वाले व्रत । चार शिक्षावत-अणुव्रतों, गुणवतों तथा धर्मसाधना का विशेष अभ्यास कराने वाले व्रत । अणुव्रत और गुणव्रत यावज्जीवन के लिए ग्रहण किये जाते हैं, किन्तु उनको सबल बनाने के लिए समयानुसार प्रतिदिन मर्यादा की जाती है। श्रावक-आचार के बारह व्रतों के नाम और उनका संक्षेप में स्वरूप निम्नप्रकार है१. अहिंसाणुव्रत स्थूल प्राणातिपातविरमण, अर्थात् निरपराध वस जीवों की संकल्प पूर्वक हिंसा करने का त्याग करना। संसार में जीव दो प्रकार के हैं-स और स्थावर। द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव त्रस और एकेन्द्रिय जीव--पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति स्थावर कहलाते हैं। हिंसा के चार प्रकार हैं--आरंभी हिंसा, २. उद्योगी हिंसा, ३. विरोधी हिंसा और ४. संकल्पी हिंसा। १ स्थानांग ४/४ टीका २ (क) उपासक दशा० १, टीका (ख) तत्त्वार्थसूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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