Book Title: Jain Achar Samhita
Author(s): Saubhagyamal Jain
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 15
________________ - ~-~AR ARAMNA.MAMALNAINAurn.nanminimalandan. ४१८ धर्म और दर्शन कर्म (व्यापार) सम्बन्धी परिमाण करने में महारम्भ वाले व्यापार-धन्धों का त्याग किया जाता है। शास्त्रों में निम्नलिखित १५ कर्मादान (व्यापार) बतलाये हैं १. इंगालकम्मे-कोयले आदि बनाने का व्यापार । २. वणकम्मे--जंगल के वृक्षों को काटकर बेचने का व्यापार । ३. साड़ीकम्मे-गाड़ी, रथ, पालको, किवाड़ आदि बनाकर बेचना। ४. भाडीकम्मे-ऊंट, बैल आदि से माड़ा कमाना। ५. फोड़ीकम्मे-हल, कुल्हाड़ी, सुरंग आदि से पृथ्वी फोड़ना। ६. दन्तवाणिज्जे-हाथी दांत, शंख, चर्म आदि का व्यापार । ७. लक्खवाणिज्जे-लाख, मेणसिल, रेशम आदि का व्यापार । ८. रसवाणिज्जे-~-~घी, दूध, तेल, मदिरा आदि का व्यापार । ६. विषवाणिज्जे-अफीम, संखिया आदि का व्यापार । १०. केशवाणिज्जे-केश वाले जीवों का व्यापार करना। ११. जन्तपोलणकम्मे-तिल, ईख, सरसों आदि पीलने का व्यापार । १२. निलंक्षणकम्मे-पशुओं को नपुसंक बनाने का व्यापार । १३. दवग्गिदावणया-वन, पर्वतों में आग लगाने का धन्धा । १४. सरदहतड़ागपरिशोषणया-खेती आदि के लिए तालाब आदि को सुखाने का व्यापार । १५. असईजणपोषणया-आजीविका के लिए वेश्या, नट, भांड आदि रखना। उक्त पन्द्रह प्रकार के कर्मादान व्यापार की दृष्टि से कहे हैं। श्रावक को इन व्यापारों की मर्यादा करना चाहिए। ८. अनर्थदण्डविरमणव्रत बिना प्रयोजन के हिसा करना अनर्थदण्ड कहलाता है। हास्य, कौतूहल, अविवेक आदि के वश होकर की जाने वाली हिंसा अनर्थ हिसा है। श्रावक को इस प्रकार की व्यर्थ में होने वाली हिंसा का त्याग करना चाहिए। विवेक शून्य मनुष्यों की मनोवृत्ति चार प्रकार से व्यर्थ ही पाप का उपार्जन करती है। इसीलिए अनर्थदण्ड के चार प्रकार हैं (१) अपध्यान--आर्त और रौद्र ध्यान में रत रहकर दूसरों का बुरा विचारना। (२) प्रमादाचरित-प्रमाद का आचरण करना, निन्दा, विकथा आदि करना । (३) हिंसाप्रदान-तलवार, बन्दुक आदि हिंसा के साधनों को दूसरो को देना । (४) पापोपदेश-पापजनक कार्यों को करने का उपदेश देना । इस व्रत को वैसे भी जन सामान्य अपना ले तो संसार में व्यर्थ होने वाली हिंसा से व्यक्ति बच सकता है । लेकिन श्रावक को अपने निर्दोष जीवन के लिए अनर्थदण्ड का त्याग आवश्यक है। इस व्रत का साधक कामवर्धक वार्तालाप नहीं करता। फूहड़ चेष्टाएं नहीं करता और न हिंसक साधनों के क्रय-विक्रय में भाग लेता है। भोगोपभोग के पदार्थों में आसक्त नहीं होता । अनर्थदण्डविरमणव्रत के निम्नलिखित पांच अतिचार हैं (१) कन्दर्प--कामवासना-वर्धक शब्दों आदि का उपयोग करना । (२) कौत्कुच्य-भांड, विदूषक आदि की तरह शरीर की कुचेष्टाएं करना। (३) मौखर्य-बिना कारण अधिक बोलना, अनर्गल बातें करना । (४) संयुक्ताधिकरण-हिंसाकारक वस्तुओं को तैयार करके रखना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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