Book Title: Jain Achar Samhita Author(s): Saubhagyamal Jain Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf View full book textPage 9
________________ rane.rammar maraEmore mvimeviyimom e ४१२ धर्म और दर्शन जैसे सावधानी पूर्वक चलना ईर्या-समिति है और देखे बिना न चलना कायगुप्ति है । निरवद्य भाषा बोलना भाषासमिति है और सावध भाषा निरोध करना या मौन रहना वचनगुप्ति है। सारांश यह है कि समिति द्वारा जो मन, वचन, आदि की प्रवृत्ति की जाती है, उसमें गुप्ति द्वारा अयतनाअसावधानी के अंश की निवृत्ति की जाती है। पांच समिति और तीन गुप्ति इन आठों को प्रवचनमाता कहते हैं। इनमें द्वादशांग रूप प्रवचन-शास्त्र समा जाते हैं। पांच महाव्रतों का जीवन के प्रत्येक व्यवहार में सतत पालन करना होता है। महाव्रत सिर्फ नियम मात्र नहीं किन्तु जीवन व्यवहार बने इसके लिए ऐसे आचार की तालीम जीवन में आये एतदर्थ आगमों में महाव्रतों की २५ भावनाएँ बताई गई हैं। उन भावनाओं के चिन्तन-अनुशीलन से जीवन व्रतों में एकरस हो जाता है और वह सहज जीवन क्रम बन जाता है । विस्तार के लिए प्रश्न-व्याकरण संवर द्वार देखना चाहिए। बारह भावनाएं साधना को ओजस्वी और सजीव बनाने के लिए मन को साधना अनिवार्य है। मन का निग्रह किए बिना आचार में शुद्धता नहीं आ सकती है। इसीलिए मन को साधने, विरक्ति की स्थिरता एवं वृद्धि के लिए साधक को अनित्य आदि बारह भावनाओं को पुनः पुनः चिन्तन करना जरूरी बताया है। जब तक साधक सांसारिक वस्तुओं को क्षणभंगुर, अपने आपको अशरण, अकेला आदि नहीं मानेगा और आत्म-विकास के कारणों को नहीं समझेगा, तब तक सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती है । भावनाएँ वैराग्य को जगाने एवं संयम को सबल बनाने में सहायक होने से चिन्तवन करने योग्य हैं । बारह भावनाओं का चिन्तवन प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह श्रमण हो या श्रावक, कर सकता है। इन भावनाओं का जितना चिन्तन-मनन किया जायेगा, उतना ही मन एकाग्र होगा, विरक्त होगा और मन की एकाग्रता होने पर कर्ममुक्ति सहज हो जायगी। बारह भावनाओं के नाम पूर्व में कहे गये हैं और उनका अर्थ भी सरलता से समझा जा सकता है। अत: यहाँ विशेष कथन नहीं किया गया है। दस श्रमणधर्म जीव स्वभाव से अमर है लेकिन कर्मवशात जन्म-मरण अवस्थाओं द्वारा शरीर से शरीरान्तर होता रहता है। फिर भी भौतिक पदार्थों के माध्यम से अथवा संतान परम्परा द्वारा अपने को अमर करने की अभिलाषा रखकर बाह्य नाशवान पदार्थों के संग्रह में जुटा रहता है । उन पदार्थों को प्राप्त करने के लिए क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों में रत रहने से अमरता के मूल आधार आत्मा का ज्ञान ही नहीं होता है तो ये नाशवान पदार्थ अमर कैसे बना सकते हैं, जो स्वयं नाशवान हैं, वे दूसरों को कैसे अमर बना सकेंगे? हां ! अमरता प्राप्ति का मार्ग क्षमा, मार्दव आदि दस विधि धर्म रूप है। इसीलिए श्रमण को उनका पालन करना आवश्यक बतलाया है। उनका संक्षिप्त रूप इस प्रकार है। १. क्षमा-क्रोध को उत्पन्न न होने देना एवं उत्पन्न होने पर उसे जीतना, शमन करना क्षमा है। बृहत्कल्प भाष्य ४/१५ में बतलाया है कि साधु, साध्वियों को परस्पर में कलह हो जाने पर तत्काल क्षमायाचना करके शान्त कर देना चाहिए। क्षमायाचना किए बिना गोचरी आदि के लिए जाना, स्वाध्याय करना, विहार भी नहीं कल्पता है। क्षमायाचना करने वाला साधु आराधक और न करने वाला विराधक माना गया है। १. उत्तरा० २४११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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