Book Title: Jain Achar Samhita Author(s): Saubhagyamal Jain Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf View full book textPage 8
________________ जैन आचारसंहिता ५. अपरिग्रहमहाव्रत सर्वथा परिग्रहविरमण । साधु परिग्रहमात्र का त्यागी होता है । चाहे फिर वह घर, धन-धान्य हो, द्विपद, चतुष्पद हो या अन्य कुछ भी हो। वह सदा के लिए मन, वचन, काय से समस्त परिग्रह - मूर्च्छाभाव को छोड़ देता है और पूर्ण असंग, अनासक्त, अपरिग्रही होकर विचरण करता है । संयम साधना में जिन उपकरणों की अनिवार्य आवश्यकता होती है, उनके प्रति भी ममत्व नहीं होता है । ४११ किसी भी वस्तु में मूर्च्छा - आसक्ति का नाम परिग्रह है । वस्तुयें बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से दो प्रकार की हैं । बाह्य परिग्रह में क्षेत्र, धन-धान्य, द्विपद- चतुष्पद, गाय-बैल आदि का ग्रहण होता है और हास्य, रति, अरति, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि मानसिक विकारों को आभ्यन्तर परिग्रह माना जाता है । साधु दोनों प्रकार के परिग्रह के त्यागी होते हैं । पांच समिति पाप प्रवृत्तियों से बचने के लिए प्रशस्त एकाग्रता की जाने वाली प्रवृत्ति को समिति कहते हैं । ये पांच प्रकार की समितियां महाव्रतों की रक्षा और पालन में सहायक होने से साधु आचार की अंग हैं । वे इस प्रकार हैं १. ईर्ष्या समिति - जीवों की रक्षा के लिए, ज्ञान, दर्शन, चारित्र के निमित्त सावधानी के साथ चार हाथ जमीन देखकर चलना । २. भाषा समिति - यतना पूर्वक हित, मित, प्रिय, निरवद्य सत्य बोलना । ३. एषणा समिति – निर्दोष एवं शुद्ध आहार, उपधि आदि की गवेषणा कर ग्रहण करना । ४. आदान-निक्षेपण समिति — आदान नाम लेने-ग्रहण करने, उठाने का है और निक्षेपण का अर्थ है रखना | किसी वस्तु को सावधानी के साथ उठाना या रखना, जिससे किसी भी जीवजन्तु का घात न हो जाये । ५. परिष्ठापनिका समिति - मल, मूत्र आदि अनावश्यक वस्तुयें ऐसे स्थान पर विसर्जित करना, जिससे जीवों का घात न हो और न जीवोत्पत्ति हो तथा दूसरों को घृणा या कष्ट न हो । उक्त पांच समितियां साधक की प्रवृत्ति को निर्दोष बनाती हैं । तीन गुप्ति मोक्षाभिलाषी आत्मा का आत्मरक्षा के लिए इन्द्रियों और मन का गोपन करना अर्थात् उन्हें असत्य प्रवृत्ति से हटा लेना, अशुभ योगों के रोकना गुप्ति कहलाती है । गुप्त 'तीन भेद इस प्रकार हैं Jain Education International १. मनोगुप्ति -- मन को अप्रशस्त, अशुभ एवं कुत्सित संकल्प - विकल्पों से हटाना यानी आर्त- रौद्र ध्यान तथा संरम्भ, समारम्भ, आरंभ सम्बन्धी मानसिक संकल्प-विकल्पों को रोक देना । २. वचनगुप्ति - वचन के अशुभ व्यापार को रोकना, असत्य, कर्कश, कठोर, कष्टजनक, अहितकर भाषाप्रयोग को रोक देना । ३. काय गुप्ति - उठना बैठना, खड़ा होना आदि कायिक व्यापार हैं । शरीर को असत व्यापारों से निवृत्त करना एवं प्रत्येक शारीरिक क्रिया में अयतना - असावधानी का परित्याग करके सावधानी रखना । समिति प्रवृत्ति रूप है और गुप्ति निवृत्ति रूप । समिति और गुप्ति का घनिष्ट सम्बन्ध है । आचार्य प्रव अभिन्दन For Private & Personal Use Only 麗 Th फ्र आयायप्रवर अभिनन्दन www.jainelibrary.orgPage Navigation
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