Book Title: Jain Achar Samhita
Author(s): Saubhagyamal Jain
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 5
________________ AKALAMAURJAAAAJRAAJAJIRKARIRAIMINARJAJANAMAH RASADAJAJAJARIBAALAJANAJAGADAdabad DADAPADMAAVAJAGA Mu . . . CHENमाचार्य अपार्यप्रव FRH श्राआनन्दमग्रन्थ 2श्राआनन्द | ४०८ धर्म और दर्शन CE लेकिन सभी साधुपद की मर्यादा का निर्वाह करने में सक्षम नहीं होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी-अपनी मानसिक, शारीरिक योग्यता होती है । अतएव जो व्यक्ति साधु-आचार का पालन करने में तो पूर्णतया समर्थ नहीं हैं लेकिन उस आचार को ही आत्मकल्याण का साधक मानते हैं, उसमें रुचि भी रखते हैं और साध्य की सिद्धि करना चाहते हैं, उनकी सुविधा एवं अभ्यास के लिए द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार साधना की प्रारम्भिक भूमिका के रूप में श्रावकाचार के सरल नियम निर्धारित किये हैं। ताकि अभ्यास द्वारा शनैः-शनैः अपने प्रमुख लक्ष्य को पा सकें। इस अभ्यास की प्रारम्भिक इकाई हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह का आंशिक त्याग करना । आंशिक त्याग के अनुरूप इन्द्रियों का व्यापार किया जाना और पारिवारिक जीवन में रहते हुए साम्यभाव में वृद्धि करते जाना। _इस प्रकार से जैनधर्म में आचार का उद्देश्य एक होते हुए भी व्यक्ति की योग्यता को ध्यान में रखते हुए साधु-आचार और श्रावकाचार यह दो भेद किए गये हैं। दोनों प्रकारों में एक ही भावना व्याप्त हैं नाणेणं दंसणणं च चरित्तेणं तवेण य । खंतीए मुत्तीए वड्ढमाणो भवाहि य ॥ -उत्तरा०२२/२६ ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, क्षमा और निर्लोभता की दिशा में निरंतर बढ़ते रहो। अथवा इन ज्ञानादि के अभ्यास द्वारा आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त किया जाये। जैनधर्म में पात्रता को ध्यान में रखते हुए आचार धर्म के भेद अवश्य किए हैं, लेकिन इसका कारण जाति, वर्ण, लिंग, वेष आदि नहीं है, किन्तु व्यक्ति का आत्मबल या मनोबल ही उस भेद का कारण है। कोई भी व्यक्ति चाहे वह किसी भी देश, काल आदि का हो, किसी जाति, वर्ण का हो, स्त्री हो या पुरुष, समान रूप से धर्मसाधना कर सकता है। सभी प्रकार के साधकों का वर्गीकरण करने के लिए १. साधु, २. साध्वी, ३. श्रावक और ४. श्राविका यह चार श्रेणियां बतलाई हैं। इनमें साधु और साध्वी का आचार प्रायः एक-सा है और श्रावक व श्राविका का आचार एकसा है। उक्त श्रेणियों में साधु और श्रावक के लिए आचार नियम पृथक्-पृथक् बतलाये हैं। साधुआचार को महाव्रत और श्रावक-आचार को अणुव्रत कहते हैं। इन दोनों आचारों में पहले साधुआचार का और बाद में श्रावकाचार का वर्णन यहाँ करते हैं। साधु-आचार विश्व के सभी धर्मों और चिन्तकों ने त्याग को प्रधानता दी है। जैन संस्कृति ने त्याग की जो मर्यादायें और योग्यताएँ स्थापित की हैं, वे असाधारण हैं। वैदिक संस्कृति के समान जैनधर्म ने त्याग जीवन को अंगीकार करने के लिए वय, वर्ण आदि को मुख्य नहीं माना है। उसका तो एक ही स्वर है कि यह जीवन क्षणभंगुर है, मृत्यु किसी भी समय जीवन का अन्त कर सकती है। अतएव इस जीवन से जो कुछ लाभ प्राप्त किया जा सकता है, उसे प्राप्त कर लेना चाहिए। वय पर जोर न देते हुए भी जैन शास्त्रों में त्यागमय जीवन अंगीकार करने वाले की योग्यता का अवश्य संकेत किया है कि जिसे तत्वदृष्टि प्राप्त हो गई है, आत्मा-अनात्मा का भेद समझ लिया है, संसार, इन्द्रिय, विषय-भोगों का स्वरूप जान लिया है और वैराग्य भावना जाग्रत हो गई है, वह व्यक्ति त्यागी-साधु बनने के योग्य है। संसार, शरीर, भोगों से ममत्व का त्याग करके जो आत्मसाधना में संलग्न रहना चाहता है, वह साधु आचार को अंगीकार कर सकता है। साधु की साधना स्वयं में स्व को प्राप्त करने के लिए होती है, तभी आत्मा की सर्वोच्च सिद्धि मिलती है। इस भूमिका को प्राप्त करने के लिए घर-परिवार, धन-सम्पत्ति आदि बाह्य पदार्थों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18