Book Title: Ishu Khrist Par Jain Dharm Ka Prabhav
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Mission Jainatva Jagaran

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Page 4
________________ देख-पहचान सके, यही उसका मानस-अमिप्राय होता है । वे उस पीयुष कलश को मिल-बांटकर पीना चाहते है, जो आत्मा के परम-पुरुषार्थ से उसे मिल गया है । इस विचारधारा से उन्हें, जो ऐसा सत्याग्रह करते हैं, सराग सम्यग्दृष्टि कहा जा सकता है। विश्व की मानवता का परित्राण करने के लिए वे क्या कुछ नहीं करते ! कितने संकटों को झेलने के लिए परायण नहीं होते ! __ यह तो मानव समाज का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि उन अमृत पिलाने वालों को वह पूर्वाग्रह का उपनेत्र लगाकर देखने का आदी हो गया है और सुकरात के हाथों से विषपात्र, गांधी की अहिंसक व्यक्ति चेतना पर पिस्तोल की गोलियां, आचार्यकल्प पं० टोडरमलजी की सेवाओं को गजेन्द्र पद और योशुखिस्ट को लकडी के क्रास पर देखकर अपने अनन्तानुबन्ध से चिपके हुए पापों को प्रसन्न-पुलकायमान करने में ही आनन्द का अनुभव करता है । यदि उसके अन्तःकरण ने कदाचित् आंसुओं की पयस्विनी में स्नान भी किया है तो बहुत देर से, जब उन शुभ देशनाओं से लोक को उपकृत करने वाले का पार्थिव शरीर कीलों, कांटो ओर गोलियों की भेट कर दिया गया होता है। महात्मा ईसा का जीवन और बलिदान इसी प्रकार के कुटिल देवतन्तुओं से बुना हुआ है जिसे कांटो पर चलना पडा ओर शूलों पर जीना पडा, जिसे पद-पद पर अवरोध और पथरावों के बीच अपने आत्मा के सत्य को उद्गीर्ण करना पडा । महात्मा ईसा के वे उपदेश, जो भगवान महावीर के अहिंसा परम-धर्म के अति समीप एवं उससे अत्यन्त प्रभावित है, उस काल के पुराणपन्थी, अर्थलोलुप पुजारियों को अपने निहित स्वार्थों के हक में अच्छे नहीं लगे, फलतः ईसा को कुरुढियों के जमे-जमाये मोर्चे से यावज्जीवन लोहा लेना पडा । उस लोहे की मुरच का विष इतना सांघातिक सिद्ध हुआ कि एक दिन उन्हें शरीर रुप से उससे परास्त होना पडा । यद्यपि आत्मा से वह विजयी हो हुए। आज ईसा के विषय में शोधक विद्वानों के अपार श्रम से जिझासा रखने वालों के लिए इतनी विपुल सामग्री प्रस्तुत है कि उसे हाथ की रेखाओं के समान देखा-पढा जा सकता है । उन शोधकों ने इस बात को प्रायः स्वीकार कर लिया है कि मसीह के उपदेशों का मूल उद्गम भारत

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