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शुद्धैर्धनैर्विवर्धन्ते' शुद्ध रुप से धनार्जन करने पर तो धन का अति संचय हो नहीं सकता, ऐसा जो जैन-शास्त्रों में लिखा है, ईसा के शब्द उन्हीं की प्रतिध्वनि हैं। महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्त 'नामदेव' ने कहा है कि नदी पर शेर पानी पीने जाए तो उसका जल क्षार नहीं बनता और गाय के लिए मधुर नहीं होता । ईसा ने कहा है कि तुम अपने हृदय में बुरे के लिए बुराई और अच्छे के लिए अच्छाई रखते हो तो क्या बडी बात है । यदि तुम बुरे को भी अपनी भलाई से 'मालामाल' कर दो तभी तुम्हारी विशेषता है । क्या सूर्य का प्रकाश श्मशान और मंदिर पर समान रुप से नहीं गिरता?
___ महात्मा ईशु का जीवन सत्य के लिए समर्पित था, अहिंसा के प्रसार के लिए संकल्पित था । वह लंगोटी अथवा धोती लगाकर रहते थे। पैदल यात्रा करते थे । रास्ते में नंगी जमीन पर मुक्त गगन के नीचे सोते थे । तकिया नहीं लगाते थे। रोगियों की सेवा करते थे। गांवों की सादगी उन्हें पसन्द थी। उनका हृदय स्फटिक मणि के समान स्वच्छ था । उपदेश हृदय की गहराइयों से निकलते थे, जो श्रोताओं को वशीभूत कर लेते थे। उनके अधिकांश उपदेश जैनधर्म की प्रतिध्वनि प्रतीत होते हैं।
नवीं शताब्दी की एक प्रसिद्ध अरबी पुस्तक 'इकमालुद्दीन' में वर्णन है कि 'यूस आसफ पश्चिम से चलकर पूर्व के मुल्कों में आये । यहां उपदेश दिये ।' इस पुस्तक में आया हुआ 'यूस आसफ' शब्द 'ईसा' वाचक ही है। अरबी भाषा में 'यूस' और 'यासु' से ईसा का ही तात्पर्य है । अफगानिस्तान और काश्मीर में जो तत्कालीन भारतीय प्रदेश थे, ईसा ने अपना अन्तिम जीवन बिताया।
हजरत ईसा ने परम्परा से चले आते हुए तत्कालीन यहूदी धर्म में जो महत्वपूर्ण क्रान्ति की, उसमें ईश्वर और मनुष्य के बीच पुरोहितों की आवश्यकता को उन्मूलित करना उल्लेखनीय है । उन्होंने कर्मकाण्ड की व्यर्थता को सिद्ध करते हुए बताया है कि ईश्वर इन आडम्बर भरे तौरतरीकों और मारे गये पशुओं के जरदा-पुलावों से प्रसन्न नहीं होता, दिल की सफाई ही उसे प्राप्त कर सकती है। यहां 'दिल की सफाई' परिणामों की विशुद्धि का नामान्तर है । हजरत ने कहा कि ईश्वर के साथ अपनी आत्मा का सम्बन्ध जोडकर सिर्फ उस जैसा ही बनने का यत्न करना -- आदमी का मुख्य कर्तव्य और धर्म है। यहां भी 'वन्दे तद्गुणलब्धये' की