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हुआ सो न्याय
कोई गरीब मनुष्य लाटरी में एक लाख रूयया ले आता है न ! वह भी न्याय है और किसी की जेब कटी वह भी न्याय है ।
कुदरत के न्याय का आधार क्या ?
प्रश्नकर्ता : कुदरत न्यायी है इसका आधार क्या ? न्यायी कहने के लिए कोई बेझमेन्ट (बेसमेंट) (आधार) तो चाहिए न ?
दादाश्री : वह न्यायी है । वह तो आपके जानने के लिए ही है । आपको विश्वास विश्वास होगा कि न्यायी है । लेकिन बाहर के लोगों को कभी भी यह विश्वास (विश्वास) नहीं होगा कि कुदरत न्यायी है । क्योंकि अपनी दृष्टि नहीं है न !
___ बाकी, हम क्या कहना चाहते है ? आफटर ऑल (अंततः) जगत् क्या है ? कि भैयाजी ऐसा ही है । एक अणुका भी फर्फ नहीं हो उतना न्यायी है, संपूर्णतया न्यायी है।
कुदरत दो बस्तुओ की बनी है । एक स्थायी सनातन वस्तु और दुसरी अस्थायी वस्तु, जो अवस्था रूपमें है । उसमें अवस्था बदलती रहेगी और वह उसके कानून के अनुसार बदलती रहेगी । देखनेवाला मनुष्य अपनी एकांतियु
(12) बुक्षिसे (बुद्धि)से देखता है । अनेकांत बुद्धिसे कोई सोचता ही नहीं, लेकिन अपने स्वाथी से ही देखता है ।
हुआ सो न्याय मेल मिलता है इन सब बातों का ? मेल मिले तो समझना कि बराबर है। कितने दुःख कम हो जोये ? ज्ञान प्रयोग में लायें तो?
और एक सेकिन्ट के लिए भी न्याय में फर्फ नहीं होता । अगर कुदरत अन्यायी होती तो किसीका मोक्ष हो नहीं होता । यह तो कहें कि अच्छे लोगोको मुसीबतें क्यों आती है । मगर बोग ऐसी कोई मुसीबत खड़ी नहीं कर सकते क्योंकी खुद यदि किसी बात में दखल नहीं करे तो कोई ताक़त ऐसी नहीं कि तुम्हारा नाम ले । खुदकी दखल की बजह से यह सब खड़ा हुआ है।
प्रैक्टिकल चाहिए, थ्योरी नहीं ! अब शास्त्रकार क्या लिखें, "हुआ सो न्याय" नहीं कहेंगे । वे तो न्याय सो ही न्याय कहेंगे । अबे मुए तेरी वजह से तो हम भटक गये ! अथाँत थ्योरेटिकल (सिद्धांतिक) ऐसा सो ही न्याय । प्रैक्टिकल बगैर दुनियामें कोई काम होता नहीं । अथाँत यह थ्योरेटिकल टिका नहीं है ।
अर्थात, तब क्या हुआ, सो ही न्याय । निविकल्प होना है तो जो हुआ है वह न्याय । विकल्पी होना हो तो न्याय खोजें । अर्थात् भगवान होना हो तो इस ओर जो हुआ सो न्याय और भटकना होतो यह न्याय खोजने भटकते रहना निरंतर ।
(13) लोभी को खटके नुकशान !
किसीका एक अकेला लड़का मर जाये तब भी न्याय ही है । वह कुछ किसी ने अन्याय किया नहीं है । इसमें भगवान का, किसीका अन्याय नहीं है। यह न्याय ही है । इसलिए हम कहते है कि संसार न्याय स्वरूप है । निरंतर न्याय स्वरूप में ही है।
यह संसार अकारण नहीं है । संसार न्याय स्वरूप है । बिलकुल, किसी समय भी अन्याय नहीं किया कुदरत ने । कुदरत जो उघर मनुण्य को काट देती है, एक्सिडेण्ट हो जाता ह, वह सब न्याय स्वरूप है. न्याय के बाहर कुदरत नहीं चली । यह तो बिना वजह नासमझीकी ठोकमठोक ..... और जीवन जीने की कला भी नहीं और देखो वरीझ वरीझ (वरीज ही वरीज, चिंता ही चिंता) इसलिए जो हुआ उसे न्याय कहें ।
आपने दुकानदार को सौ का नोट दिया । उसने पाँच रूपये का सामान दिया और पाँच आपको वापस किये? सारी धमाल में वह नब्बे वापस करना
किसी का एक अकेला लड़का मर गया. तब उसके घरवाले ही आँसूं बहायैगे । दूसरे आस-पास वाले सब क्यों आँसूं नहीं बहते ? वे अपने स्वार्थ पर ही रोते है । यदि सनातन वस्तुका ध्यान करें तो कुदरत न्याय संगत ही है।