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दादा भगवान प्रापित
हुआ सो न्याय ।
हुआ सो न्याय! कुदरत के न्याय को समझोगे कि 'हुआ सो न्याय', तो आप इस संसार से मुक्त हो सकोगे। अगर कुदरत को जरा भी अन्यायी मानोगे तो आपका संसार में उलझने का कारण वह ही है। कुदरत को न्यायी मानना, उसी का नाम ज्ञान। जैसा है वैसा' जानना, उसी का नाम ज्ञान और जैसा है वैसा नहीं जानना, उसी का नाम अज्ञान ।।
___ हुआ सो न्याय' समझें तो संसार से पार हो जायें, ऐसा है । दुनिया में एक क्षण भी अन्याय होता नहीं है । न्याय ही हो रहा है ।बुद्धि हमें फँसाती है कि यह न्याय कैसे कहलाये ? इसलिए हम असली बात बताना चाहते हैं कि यह न्याय कुदरत का है और आप बुद्धि से अलग हो जाये। एक बार समझ लेने के बाद हमें बुद्धि का कहा नहीं मानना चाहिए। हुआ सोही न्याय ।
-दादाश्री
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दादा भगवान कथित
प्रकाशक : दादा भगवान फाउन्डेशन की ओर से
श्री अजीत सी. पटेल 5, ममतापार्क सोसायटी, नवगुजरात कोलेज के पीछे, उस्मानपुरा, अहमदाबाद - 380014 फोन - 7540408, 7543979 E-Mail: dimple@ad1.vsnl.net.in
संपादक के आधीन
हुआ सो न्याय
आवृति : प्रत 3000,
जनवरी, 2001
भाव मूल्य : 'परम विनय'
और ___'मैं कुछ भी जानता नहीं', यह भाव!
द्रव्य मूल्य : ५.०० रुपये (राहत दर पर)
लेसर कम्पोझ : दादा भगवान फाउन्डेशन, अहमदाबाद
संकलना : डॉ. नीरुबहन अमीन
मुद्रक
: महाविदेह फाउन्डेशन (प्रीन्टींग डीवीझन),
धोबीघाट, दूधेश्वर, अहमदाबाद-३८० ००४. फोन : 5629197
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ત્રિમંત્ર
( દાદા ભગવાન ફાઉન્ડેશનના પ્રકાશનો ૧. ભોગવે તેની ભૂલ (ગુ, અં, હિ.) ૧૯. સમજથી પ્રાપ્ત બ્રહ્મચર્ય (ગ્રં, સં.) ૨. બન્યું તે ન્યાય (ગુ., અંગ, હિ.) ૨૦. વાણીનો સિદ્ધાંત (ગ્રં, સં.)
એડજસ્ટ એવરીવ્હેર (ગુ, એ., હિ.) ૨૧. કર્મનું વિજ્ઞાન ૪. અથડામણ ટાળો (ગુ, અં., હિ.) ૨૨. પાપ-પુણ્ય ૫. ચિંતા (ગુ, અં.)
૨૩. સત્ય-અસત્યના રહસ્યો ૬. ક્રોધ (ગુ, અં)
૨૪. અહિંસા માનવધર્મ
૨૫. પ્રેમ સેવા-પરોપકાર
૨૬. ચમત્કાર ૯. હું કોણ છું ?
૨૭. વાણી, વ્યવહારમાં... ૧૦. ત્રિમંત્ર
૨૮. નિજદોષ દર્શનથી, નિર્દોષ ૧૧. દાન
૨૯. ગુરુ-શિષ્ય ૧૨. મૃત્યુ સમયે, પહેલાં અને પછી ૩૦. આપ્તવાણી - ૧ થી ૧૨ ૧૩. ભાવના સુધારે ભવોભવ (ગુ..અં.) ૩૧. આપ્તસૂત્ર - ૧ થી ૫ ૧૪. વર્તમાન તીર્થકર શ્રી સીમંધર સ્વામી ૩૨. Harmony in Marriage (ગુજરાતી, હિન્દી)
33. Generation Gap ૧૫. પૈસાનો વ્યવહાર (ગ્રં., સં.) ૩૪. Who am I? ૧૬. પતિ-પત્નીનો દિવ્ય વ્યવહાર (.સં.) ૩૫. Ultimate Knowledge ૧૭. માબાપ છોકરાંનો વ્યવહાર , સં.) ૩૬. ટ્રાદ્દા માવાન 1 આત્મવિજ્ઞાન ૧૮. પ્રતિક્રમણ (ગ્રંથ, સંક્ષિપ્ત) ૩૭. “દાદાવાણી’ મેગેઝીન-દર મહિને...
(ગુ. ગુજરાતી, હિ.હિન્દી, અં. અંગ્રેજી, ગ્રં.-ગ્રંથ, સં.સંક્ષિપ્ત)
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संपादकीय
'दादा भगवान कौन ? जून उन्नीस सौ अट्ठावन की वह साँझका करीब छह बजेका समय, भीड़से धमधमाता सूरतका स्टेशन, प्लेटफार्म नं. ३ परकी रेल्वे की बेंच पर बैठे अंबालाल मूलजीभाई पटेल रूपी मंदिर में कुदरत के क्रमानुसार अक्रम रूपमें कई जन्मोंसे व्यक्त होने के लिए आतुर "दादा भगवान" पूर्णरूपसे प्रकट हुए ! और कुदरतने प्रस्तुत किया अध्यात्मका अद्भुत आश्चर्य ! एक घण्टे में विश्व दर्शन प्राप्त हुआ।"हम कौन ? भगवान कौन ? जगत् कौन चलाता है ? कर्म क्या ? मुक्ति क्या ? इत्यादी." जगत के सारे आध्यात्मिक प्रश्नों का संपूर्ण रहस्य प्रकट हुआ। इस तरह कुदरतने विश्वमें चरनोंमें एक अजोड पूर्ण दर्शन प्रस्तुत किया और उसके माध्यम बने श्री अंभालाल मूलजीभाई पटेल, चरुतर के भादरण गाँवके पाटीदार कोन्ट्रेक्टका व्यवसाय करनेवाले, फिर भी पूर्णतया वीतराग पुरुष !
उन्हें प्राप्ति हुई उसी प्रकार केवल दो ही घण्टों में अन्यों को भीवे प्राप्ति कराते थे, अपने अद्भूत सिद्ध हुए ज्ञान प्रयोग से । उसे अक्रममार्ग कहा । अक्रम अर्थात बिना क्रमके और क्रम अर्थात सीढ़ी दर सीढ़ी क्रमानुसार उपर चढ़ना । अक्रम अर्थात लिफट मार्ग ! शॉर्टक्ट !
आपश्री स्वयं प्रत्येक को "दादा भगवान कौन ।" का रहस्य बताते हुए कहते थे कि "यह दिखाई देते है वे "दादा भगवान " नहीं हो सकते । यह दिखाई देनेवाले है वे तो "ए, एम. पटेल" हैं । हम ज्ञानी पुरुष हैं । और भीतर। प्रकट हुए हैं वे "दादा भगवान" है । दादा भगवान तो चौदह लोक के नाथ है, वे आपमें भी है । सभीमें भी है । आप में अव्यक्त रूपमें रहते है अऔ "यहाँ संपूर्ण रूपसे व्यक्त हुए है । मैं खुद भगवान नहीं हूँ । मेरे भीतर प्रकट हुए दादा भगवानको मैं भी नमस्कार करता हूँ।"
"व्यापार में धर्म होना चाहिए, धर्म में व्यापार नहीं होना चाहिए।" इस सिद्धांतसे वे सारा जीवन जी गये । जीवन में कभी भी उन्होंने किसीके पास से पैसा नहीं लिया । उल्टे धंधेकी अतिरिक्त कमाई से भक्तों को यात्रा कखाते थे !
परम पूजनीय दादाश्री गाँव गाँव देश-विदेश परिभ्रमण करके मोक्षर्थी जीवों को सत्संग और स्वरूप ज्ञानकी प्राप्ति करवाते थे । आपश्रीने अपनी हयात में ही पूजनीय डॉ. नीरूबहन अमीनको स्वरूपज्ञान प्राप्ति करनाने की ज्ञान सिद्धि अर्पित की है । दादाश्री के देह विलय पश्चात आज भी पूजनीय डॉ. नीरूबहन अमीन गाँव-गाँव, देश-विदेश जाकर मोक्षार्थी जीवोंको सत्संग और स्वरूपज्ञानकी प्राप्ति निमित्त भावसे करा रही है । जिसका लाभ हजारो मोक्षार्थी लेकर धन्यताका अनुभव करते है।
लाखों लोग बद्री-केदारकी यात्राको गये और यकायक(एकाएक) बर्फ गिरी और सैकड़ों लोग दबकर मर गये । यह सुनकर प्रत्येक के भीतर हाहाकार मच जायेगा कि कितने भक्ति भावसे भगवान के दर्शन को जाते हैं, उनको ही भगवान ऐसे मार डाले ? भगवान भयंकर अन्यायी है । दो भाईयों के बीच जायदाद के बँटवारे में एक भाई सब हडप लेता है । दूसरे को कम मिलता हैं वहाँ बुद्धि न्याय खोजती है. अंत में कोर्ट कचहरी चढ़ते है और सप्रिम-कोर्ट (सप्रीम कोर्ट) तक लडते है । फल स्वरूप दु:खी ज्यादा दु:खी होते रहेते हैं । निर्दोष व्यक्ति जेल जाता है, गन्हगार (गुनहगार) मौज उडाता हैं, तब इसमें क्या न्याय रह गया ? नीतिमान मनुष्य दुःखी होवे, अनीतिमान बंगले बनाये और गाडियों में फिरे, वहाँ किस प्रकार न्याय स्वरूप लगेगा ?
कदम-कदम पर ऐसे अवसर आते है, जहाँ बुद्धि न्याय खोजने बैठ जाती है और दुःखी ज्यादा दुःखी हो जाते है । परम पूजनीय दादाश्री की अद्भुत आध्यात्मिक खोज है कि संसार में कहीं भी अन्याय होता ही नहीं है । हुसा सो ही न्याय (जोहुसा, वही न्याय)। कुदरत कभी भी न्याय के बाहर गई नहीं । क्योंकि कुदरत कोई व्यक्ति या भगवान नहीं है कि किसीका उस पर जोर चले ? कुदरत यानी सायन्टिफिक सरमकस्टेन्शियल एविडन्सिस । कितने सारे संयोग इकटेढे ह तभी एक कार्य होता है । इतने सारे थे उनमें से अमुक ही क्यों मारे गये ? जिस-जिस का हिसाब था वे ही शिकार हुए, मृत्यु के ओर दुर्धटना के । एन इन्सिडेन्ट-हेस सो मैनी हेड कोझीझ(कॉझेझ) और एन एकिसडेन्ट हेस (हँज) टु मेनी कॉझीझ (कॅजेज) । (एक घटनाके लिए कई कारन(कारण) होते है और दुधना के लिए बहतेरे कारन(कारण) होते है ।) अपने हिसाब के बगैर एक मच्छर भी नहीं काट सकता ? हिसाब है इसलिए ही दण्ड आया है । इसलिए जो छूटना चाहताहै उसं तो यही बात समझनी है कि खुद के साथ जो जो हुआ सो न्याय ही है । “हुआ सो ही न्याय(जो हुआ, वही न्याय)" इस ज्ञान का जीवन में जितना उपयोग होगा उतनी शांति रहेगी और ऐसी प्रतिकूलता में भी भीतर एक परमाणु भी चलायमान नहीं होगा ।
डॉ. नीरूबहन अमीन के जय सच्चिदानंद ।
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हुआ सो ही न्याय (जो हुआ, वही न्याय)
(विश्व) विश्व की विशालता, शब्दातीत.. इन सभी शास्त्रो में वर्णन हैं, उतना ही संसार नहीं है । शास्त्रों में तो एक अमुक अंश ही है । बाकी संसार तो अवक्तव्य(अव्यक्त) और अवर्णनीय है कि जो शब्दो में उतरेगा नहीं तो शब्दो के बाहर दुम उसका वर्णन कहाँसे समझ पाओगे ? उतना बड़ा विशाल है संसार, और मै देखकर बैठा हूँ इसलिए मैं तुम्हे बता सकता हूँ की कैसी विशालता है ।
कुदरत तो न्यायी ही, सर्वदा । जो कुदरत का न्याय हे वह एक पल भी अन्याय हुआ नहीं है । एक पल भी यह कुदरत जो है वह अन्याय को प्राप्त नहीं हुई, अदालतें ही नहीं है । कुदरत का न्याय कैसा है ? कि यदि आप ईमानदार है और आज यदि आप चोरी करने जाये तो आपको पहले ही पकड़वा देगी । और बेईमान होगा उसे पहले दिन एन्करज (प्रोत्साहित) करेगी । कुदरत का ऐसा हिसाब होता है पहले को ईमानदार रखना है इसलिए उसे उड़ा देगी, हेल्प (मदद) नहीं करेगी, और दूसरे को हेल्प करती ही रहेगी । और बाद में ऐसा मार मारेगी कि फिर उपर नहीं उढ पायेगा ? वही बड़ी अधोगति मे जायेगा, पर कुदरत एक मिनिट भी अन्यायी नहीं हुई ? लोग मुझे पूछते हैं कि यह पैर में फ्रेक्चर हुआ है वह ? न्याय ही किया है पह सब कुदरत ने ।
कुदरत के न्याय को यदि समझोगे हुआ सो न्याय (जो हुआ वही न्याय) तो तुम इस संसार से रिहा हो सकोगे । वर्ना कुदरतको जरा भी
हुआ सो न्याय अन्यायी मानोगे कि तुम्हारा संसार में उलझने का स्थान ही है वह । कुदरत को न्यायी मानना उसका नाम ज्ञान । "जैसा है वैसा" जानना उसका नाम ज्ञान और "जैसा है वैसा" नहीं जानना, उसका नाम अज्ञान ।
___ एक आदमीने दूसरे आदमी का मकान जला दिया, तब उस समय कोई पूछे कि भगवान यह क्या ? इसका मकान इस आदमी ने जला दिया यह न्याय है कि अन्याय ? तब कहते, "न्याय । जला डाला वही न्याय ।" अब इस पर वह कुढ़न करे कि नालायक है और ऐसा है न वैसा है । तब फिर उसे अन्याय का फल मिले । न्याय को ही अन्याय कहता है । संसार बिलकुल न्याय स्वरूप ही है । एक पलभरके लिए उसमें अन्याय होता नहीं है ।
इस संसार में न्याय मत खोजना । संसार में न्याय खोचने से तो सारे विश्व(विश्व) मे लडाइयाँ पैदा हुं है । संसार न्याय स्वरूप ही है । अर्थात संसार में न्याय खोजना ही नहीं । जो हुआ, सो न्याय तो हो गया वही न्याय । ये अदालते आदि सब हुआ, वह न्याय खोजते है ईसलिए (यह तो अदालतें बनी है, वह न्याय खोजने के लिए बनी है । अबे, मए. (अरे, मुर्ख) कहीं न्याय होता होगा ?! उसके बजाय "क्या हआ." है यह देख ! वहीं न्याय है ! न्याय स्वरूप अलग है और हमारा यह फल स्वरूप अलग है ! न्याय अन्याय का फल वह तो हिसाब से आता है और हम उसके साथ न्याय जोईन्ट करने जाते हैं, फिर अदालत में ही जाना पडे न ! और वहाँ जाकर, थक कर, लौट ही आना है, आखिर कार !
हमने किस को एक गाली दे दी तब वह हमें फिर दो तीन दे देगा, क्योंकि उसका मन उबलता हो गम पर। तब लोग क्या कहेंगे तूने तीन गालियाँ दी इसने तो एक ही दी थी। तब उसका न्याय क्या है ? हमे तीन ही देनेकी होवे । पिछला लेन देन चुकता कर लें कि नहीं करलें ?
प्रश्नकर्ता : हाँ, कर लें।
दादाश्री : बकाया वसूल करोंगे कि नहीं करोंगे ? उसके पिताजी को रुपया उधार दिया हो हमने पर फिर कभी मौका मिले तो हम वसल कर लें
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हुआ सो न्याय
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न? पर वह तो समझे कि अन्याय करता है। ऐसा कुदरत का न्याय क्या है ? पिछला लेन-देन होवे उन सबको इकट्ठा कर दें । वर्तमान में स्त्री पति को परेशान करती हो, वह कुदरती न्याय है । यह औरत बहुत बुरी है और औरत क्या समझे पति बुरा है । लेकिन कुदरत का न्याय ही है यह ।
प्रश्नकर्ता: हाँ।
दादाश्री : और आप शिकायत करने आयें। मैं शिकायत नहीं सुनता, इसका कारण क्या ?
प्रश्नकर्ता : अब मालुम हुआ किं यही न्याय है ।
उलझन सुलझाये कुदरत !
दादाश्री : यह हमारी खोंजें है न सभी ! भेगने वाले की भूल, देखों खोज कितनी अच्छी है। किसीसे टकराव में आना नहीं। फिर व्यवहार में न्याय मत खोजना ।
नियम कैसा है कि जैसे उसझन की हों, वह उलझन उसी प्रकार ही सुलझे फिर । अन्याय पूर्वक की गयी उलझन हो तो अन्याय से सुलझे और न्याय से की हो तो न्याय से सुलझे । ऐसी ये उलझन सुलझती हैं सभी । ऐर लोग उसमें न्याय खोजते हैं। मुए न्याय क्या खोजता है, अदालत गया के जैसा ? ! अरे मूर्ख, अन्याय पूवर्क उलझन तूने पैदा की और अब तू न्यायपूर्वक सुलझाने चला है ? किस प्रकार होगा वह ? वह तो नौ से किया तो गुणा नौ से भागने देते पर ही भूल संख्या आये । उलझन कई, उलझकर पड़ा है सब । इसलिए ये मेरे शब्द जिसने धारण किये हो उसको काम बन जाये न।
प्रश्नकर्ता: हाँ दादा, ये दो-तीन शब्द धारण किये हो और जरुरतमंद मनुष्य होवे, उसका काम हो जाये ।
दादाश्री : काम हो जाये । जरुरत से ज्यादा खक्कतमंद नहीं हो न, तो काम हो जाये ।
हुआ सो न्याय प्रश्नकर्ता: व्यवहार में " तू न्याय मत खोजना" और "भोगने वाले की भूल " ये दो सूत्र धारण किये हैं ।
दादाश्री : न्याय खोजना नहीं, वह वाक्य तो धारण कर लिया न तो उसका सब औलराइट हो जाये । यह न्याय खोजते हैं उससे ही सब उसझनें खड़ी हो जाती हैं ।
पुण्योदय से खूनी भी छूटो निर्दोष....
प्रश्नकर्ता: कोई किसीका खून करे, तो भी न्याय ही कहला ये ?
दादाश्री : न्याय के बाहर कुछ चलता नहीं । न्याय ही कहलाये भगवानकी भाषा में । सरकारकी भाषा नें नहीं कहलाये । यह लोक भाषा में नहीं कहलाये । लोक भाषा में तो खून करने वाले को पकड़ लाये कि यही गुनहगार है । और भगवानकी भाषा में क्या कहें ? तब कहे, नहीं, खून करनेवाला जब पकड़ा जायेगा, तब फिर वह गुनहगार गिना जायेगा ! हालमें तो वह पकड़ा नहीं गया और यह पकड़ा गया! आपकी समख में नहीं आया ?
प्रश्नकर्ता: कोर्ट में कोई मनुण्य खून करकें निर्दोष बरी हो जाता है. वह उसके पूर्वकर्म का दबदा लेता है कि फिर उसकें पुण्य से वह इस प्रकार छूट जाता है ? क्या है यह ?
दादाश्री : वह पुण्य और पूर्वकर्म का बदला एक ही कहलाये ऐ उसका पुण्य था इसलिए छूट गया ओर किसी ने वहीं किया हो तो भी बँध (फँस जाये, जेल जाना पड़े, वह उसके पाप का उदय ऐ उसमें छूटकारा ही नहीं ।
बाकी यह जो दुनिया है, इन अदालतो में कभी अन्याय होवे, मगर कुदरर ने इस दुनिया में अन्याय किया नहीं है। न्याय ही होती (होता) है । न्याय के बाहर कुदरत कभी गई नहीं है। फिर बवंडर दो लाये कि एक लाये, मगर न्याय में ही होती है ।
प्रश्नकर्ता: आपकी द्रष्टि में विनाश होते द्रश्य जो दिखते है वे हमारे
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हुआ सो न्याय लिए श्रेय ही हे न ?
दादाश्री: विनाश होता दिखे, उसे श्रे. किस प्रकार कहेंगे ? लेकिन विनाश होता है वहे पद्धतिनुसार सत्य ही है । कुदरत विनाश करती है वही भी बराबर है और कुदरत जिसका पोषण करती है वह भी बराबर है । सब रेग्युलर (नियमसे) करती है, ऑन ध स्टेज । यह तो अपने स्वार्थ को लेकर लोक फ़रियाद ( शिकायत) करते हैं, हमें फायदा हुआ । अर्थात लोग तो अपना-अपना स्वार्थ ही गाते (देखते) है।
हुआ सो न्याय पहले का सब हिसाब है न । बही खाता बाकी है इसलिए, वर्ना कभी भी हमारा कुछ ले नहीं किसी से ले सकें, ऐसी शक्ति ही नहीं है? और ले लेव वह तो हमारा कुछ अगला-पिछला हिसाब है । इस दुनिया में कोई पैदा नहीं हुआ कि जो किसी का कुछ कर सके । उतना चौकस (सही) कानूनन संसार है । बहुत ही कानूनन् जगत् हे । सांप भी छएव नहीं ? इतना यह मैदान साँपसे भरा हो, पर छूए नहीं उतना नियम वाला जगत है । बहुत हिसाब वाला संसार है । यह संसार बड़ा सुंदर है, न्याय स्वरूप है, पर फिर भी लोगों की समझमें नहीं आता।
मिले कारन (कारण), परिणाम पर से ।
प्रश्नकर्ता : आप कहते है कि कुदरत न्यायी है, तो फिर फूकंप होते हैं, बवंडर आते है, बारिश जोरोंसे होती है. वह किस लिए?
दादाश्री : वह सब न्याय हो रहा है । बारिश होती है. सब अनाज पकता है । यह सब न्याय हो रहा है । भूकंप होते है, वह भी न्याय हो रहा है।
प्रश्नकर्ता : वह किस तरह ?
दादाश्री : जितने गुनहगार होंगे उतनों को ही पकड़ेंगे, दूसरों को नहीं। गुनहगार को ही पकड़ते है वह सब । यह संसार बिलकुल डिस्टर्ब (विचलित) हुआ नहीं है । एक सेकिन्ड के लिए भी न्याय के बाहर कुछ गया नहीं है ।
संसार में जरूरत चोर-साँपकी ! तब ये लोग मुझसे पूछते है कि ये चोर लोग क्या करने आये होंगे ? वे सभी जेबकतरोंकी क्या आवश्यकता है ? भगवानने क्योंकर इनको जनम(जन्म) दिया होगा । अबे (अरे) वे नहीं होते तो तुम्यारी जेबे कौन खाली करने आता ? भगवान स्वयं आते ? तुम्हारा चोरी का धन कौन हडप जाता ? तुम्हारा खोटा धन कौन ले जाता ? वे निमित्त हैं बेचारे ? अर्थात् इन सभी की आवश्यकता है।
प्रश्रकर्ता : किसीकी पसीने की कमाई भी जाती रहती है । दादाश्री : वह तो इस अवतार (जन्म) की पसीनेकी कमाई, लेकिन
यह सब रिझल्ट (परिणाम) है । जैसे परिक्षा का रिझल्ट आये न, यह मैथेमैटिक्स (गणित) में सौ मार्क्स में से पंचानवे मार्कस आये और ईग्लिश में सौ मार्स में से पच्चीस मार्क्स आये । तब हमें मालुम नहीं होगा कि इसमें कहाँ पर भूल रहती है ? इस परिणाम पर से, किस - किस कारन (कारण) से भूल हुई वह हमें पता चले न ? ऐसे ये सभी परिणाम निकलते हैं । ये संयोग जो सब प्राप्त होते हे, वे सभी परिणाम है । और उस परिणाम पर से क्या कॉज कारन (कारण) था, वह हमें मालुम होगा ।
यहाँ रास्ते पर सभी मनुष्यों की आवन-जावन (का आना-जाना) हो और बबल की शल ऐसे सीधी खड़ी हो, लोग आते-जाते हो, लेकिन शूल वैसीकी वैसी पड़ी हों । और हम कभी भी बट-चप्पल पहने बगैर निकलते नहीं हो पर उस दिन किसीके वहाँ गये हो और शोर उठे कि चोर आया, चोर आया तब हम खुले पैर दौड़ पड़े और शूल हमारे पैर में घुस जाये । वह हिसाब हमारा । वह भी ऐसे आप-पार हो जाये ऐसे घुस जाये । अब यह संयोग कौन मिला देता है ? यह सब व्यवस्थित है।
कानून सभी कुदरत के मुम्बई के कोर्ट एरियामें आपकी सोने की चेनवाली घड़ी खो जाये और आप घर आकर ऐसा मानले कि भैया, अब वह हमारे हाथ नहीं लगेगी।
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हुआ सो न्याय इसलिए जमा कर लेना ।
संसार से भाग खड़ा होना है जिसे... फिर कोई दफ़ा दालमें नमक ज्यादा पड़ा हो वह भी न्याय ।
प्रश्नकर्ता : क्या हो रहा है उसे देखने का. ऐसा आपने कहा है । तब फिर न्याय करने का ही कहाँ रहा ?
हुआ सो न्याय लेकिन दो दिन बाद पेपरमें पढ़ें कि जिसकी घड़ी हो वह हमसे सबूत देकर ले जाये और छपाई के पैसे दे जाये । अर्थात जिसका है उससे कोई हिला नहीं सकता । जिसका नहीं है, उसे मिलने वाला नहीं । एक परसेण्ट भी किसी प्रकार इधर-उधर नहीं कर सकते । यह ऐसा पूर्णतया कानूनन् संसार है । अदालतें कैसी भी हो वे कलयुग के आधार पर होंगी । लेकिन यह कुदरत के कानून के आधीन है । अदालती कानून भंग किया होगा तो अदालत के प्रति गुनहगार बनोगे, मगर कुदरत के कानून मत तोड़ना ।
यह तो हैं खुद के ही प्रोजेक्शन । बस, यह सब प्रोजेक्शन आपका ही है । क्यों कर लोगों को दोष दें ? प्रश्नकर्ता : क्रिया की प्रतिक्रिया है यह ?
दादाश्री : इसे प्रतिक्रिया नहीं कहते । लेकिन यह प्रोजेक्शन सभी आपका है । प्रतिक्रिया कहें तब फिर एक्शन एण्ड रिएक्शन ओर इक्वल एण्ड ऑपोझीट (अपोझिट) होगा ।
यह तो दृष्टांत देते है, उपमा देते हैं । आपका ही प्रॉजेक्शन है यह । अन्य किसीका हस्तक्षेप नहीं है इसलिए आपको सावधान रहना चाहिए कि जिम्मेवारी मुझ पर है । जिम्मेवारी समझने के बाद घर में वर्तन (बर्ताव) कैसा होगा ?
प्रश्नकर्ता : उसके मुताबिक बर्ताव करना चाहिए ।
दादाश्री : हाँ, जिम्मेवारी खुदकी समझें । वर्ना वह तो कहेगा की भगवान की भक्ति करने पर सब जाता रहेगा । पोलमपोल । भगवान के नाम पर पोल चलाई लोगो ने । जिम्मवारी खुद की है । होल एण्ड सोल रिस्पोन्सिबल । प्रोजेक्शन ही खुद का है न ।
कोई दुःख दे तो जमा कर लेना । जो दिया होगा वही वापस जमा करने का है । क्योंकि यहाँ पर बिना वज़ह दूसरे को दुःख पहुँच्चा सके ऐसा कानुन नहीं है । उसके पीछे कोझ कारन (कोज कारण) होने चाहिई,
दादाश्री : न्याय, मै जरा अलग से कहना चाहता हूँ । देखो न, उसका हाथ जरा मिट्टी के तलवाला होगा, उस हाथ से लोटा उठाया होगा । इसलिए सबमें मिट्टी के तेल की गंध आये. अब मै तो जरा पानी पीने गया कि मुझे मिट्टी के तेलकी बू आई । इस वक्त हम देखें और जाने कि क्या हुआ है यह ! फिर न्याय क्या होना चाहिए कि हमारे हिस्से में कहाँ से आया यह ? हमारे कभी भी नहीं आया और आज कहाँसे आया ? इसलिए यह हमारा ही हिसाब है । अर्थात यह हिसाब जमा कर लो । लेकिन वह किसीको मालूम न हो इस प्रकार जमा ले लेना । फिर सुबह उठने पर वह बहन आये और फिरसे वही पानी मँगवाकर दे तो हम फिर उसे पी जाये । लेकिन किसी को मालूम नहीं हो । अब अज्ञानी इस जगह क्या करेगा ?
प्रश्नकर्ता : शोर मचा देगा।
दादाश्री : घर के सारे लोग जान जाये कि आज शेठजी के पानी में मिट्टी का तेल पड़ गया ।
प्रश्रकर्ता : सारा घर हिल जाये ।
दादाश्री : अरे, सबको पागल कर दे । और जोरू तो बेचारी फिर चाय में शक्कर डालना भी भूल जाये ! एक दफ़ा हिला, फिर क्या हो ? दूसरी प्रत्येक बात में हिल जाये ।
प्रश्नकर्ता : दादा, उसमें हम शिकायत न करें बराबर मगर बादमें शांत चित होकर घरवालों को कहना तो सही न कि भैया, पाना में मिट्टी का तेल
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हुआ सो न्याय आया था? अब से ख्याल रखना ।
दादाश्री : वह कब कहना चाहिए ? चाय-जलपान करते हो, हँसते हो, तब हँसते हँसते हम बात कर दें ।
इस समय हमने यह बात जाहिर की न ? इस प्रकार हँसते हो तो बात जाहिर कर सकते हो।
प्रश्नकर्ता : अर्थात सामनेवाले को चोट हीं पहुँचे. इस तरह करना न ?
दादाश्री : हाँ, इस तरह कहें तो वह सामने वाले को हेल्प करे । लेकिन सबसे अच्छे से अच्छा रास्ता यही है कि मेरी भी चूप और तेरी भी चूप !!! उसके समान एक भी नहीं क्यांकि जिसे भाग खड़ा होना हे वह जरासी भी शिकायत नहीं करेगा।
प्रश्नकर्ता : सलाह के तौर पर भी नहीं करना ? वहाँ चुप रहना क्या ?
दादाश्री : वह उसका सब हिसाब लेकर आया है । सयाना होने के लिए भी वह सब हिसाब लेकर ही आया है ।
हम क्या करते है कि जो यहाँ से निकलना हो तो भाग खड़े हो । और भाग जाना होना हो तो कुछ बोलना मत । रात को यदि भाग जाना हो और हम शोर मचायें तो वहाँ पकड़े जाये न !
भगवान के यहाँ कैसा होये ? भगवान न्याय स्वरूप नहीं है और भगवान अन्याय स्वरूप भी नहीं है। किसी को दु:ख नहीं हो वहीं भगवान की भाषा है । इसलिए न्याय-अन्याय वह तो लोकभाषा है।
चोर चोरी करने में धर्म मानता है । दानवीर दान देने में धर्म मानता है विह लोकभाषा है । भगवान की भाषा नहीं है । भगवान के वहाँ ऐसा वैसा कुछ है ही नहीं । भगवान के वहाँ तो इतना ही है कि किसी जीवको दु:ख नहीं हो, यही हमारी आज्ञा है !
हुआ सो न्याय न्याय-अन्याय तो एक कुदरत ही देखती है । बाकी वह जो यहाँ संसारी न्याय-अन्याय, वह दुश्मनों को, गुनहगारो को हेल्प करता है । कहेंगे, "होगा बेचारा, जाने दो न!" तब गुनहगार भू छूट जाये । “ऐसा ही होवे" कहेंगे । कुदरत का वह न्याय उसमें छूटकारा ही नहीं । उसमें किसी का नहीं चलता ।
अपने दोष दिखाये, अन्याय । केवल अपने दोष के कारन (कारण) संसार सारा गैरकानूनी लगता है। गैरकानूनी हुआ ही नहीं किसी पल । बिलकुल न्याय में ही होता है । यहाँ की अदालतों के न्याय में फर्फ पड़ जाये । वह गलत निकले, मगर इस कुदरत के न्याय में फर्फ नहीं होता।
प्रश्नकर्ता : अदालती न्याय वह कुदरत का न्याय सही कि नहीं ।
दादाश्री : वह सब कुदरत ही है । लेकिन कार्टमें हमे ऐसा लगे कि इस जज ने ऐसा किया । ऐसा कुदरत में नहीं लगता न ? मगर वह तो बुद्धि की तकरार है।
प्रश्रकर्ता : आपने कुदरत के न्याय की तुलना कम्प्यूचर से की मगर कम्प्युटर तो मिकेनिकल होता है।
(11) दादाश्री : उसके समान समझाने के लिए और कोई साधन है नहीं इसलिए यह मैंने तुलना की है । बाकी, कम्प्युटर तो कहने के खातिर है कि भाई इस कम्प्युटर में इस ओर फीड किया, इस प्रकार इसमें खुद के भाव पड़ते हैं । अर्थात एक जन्म के भावकर्म है वे वहाँ पड़ने के बाद दूसरे जन्म में उसका परिणाम आता है । अर्थात उसका विसर्जन होता है। वह इस व्यवस्था के हाथों में है । वह एक्झेक्ट अदल इन्साफ ही करती है । जो न्याय संगत हो वैसा ही करना है । बाप अपने बेटेको मार डाले ऐसा भी न्याय में आता है । फिर भी वह न्याय कहलाये । न्याय तो न्याय ही कहलाये, क्योंकि जैसा बाप-बेटे का हिसाब था वैसा हिसाब चुकता हुआ । वह चुकावा हो गया । इसमें चुकावा ही होता है, और कुछ नहीं होत ।
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हुआ सो न्याय
कोई गरीब मनुष्य लाटरी में एक लाख रूयया ले आता है न ! वह भी न्याय है और किसी की जेब कटी वह भी न्याय है ।
कुदरत के न्याय का आधार क्या ?
प्रश्नकर्ता : कुदरत न्यायी है इसका आधार क्या ? न्यायी कहने के लिए कोई बेझमेन्ट (बेसमेंट) (आधार) तो चाहिए न ?
दादाश्री : वह न्यायी है । वह तो आपके जानने के लिए ही है । आपको विश्वास विश्वास होगा कि न्यायी है । लेकिन बाहर के लोगों को कभी भी यह विश्वास (विश्वास) नहीं होगा कि कुदरत न्यायी है । क्योंकि अपनी दृष्टि नहीं है न !
___ बाकी, हम क्या कहना चाहते है ? आफटर ऑल (अंततः) जगत् क्या है ? कि भैयाजी ऐसा ही है । एक अणुका भी फर्फ नहीं हो उतना न्यायी है, संपूर्णतया न्यायी है।
कुदरत दो बस्तुओ की बनी है । एक स्थायी सनातन वस्तु और दुसरी अस्थायी वस्तु, जो अवस्था रूपमें है । उसमें अवस्था बदलती रहेगी और वह उसके कानून के अनुसार बदलती रहेगी । देखनेवाला मनुष्य अपनी एकांतियु
(12) बुक्षिसे (बुद्धि)से देखता है । अनेकांत बुद्धिसे कोई सोचता ही नहीं, लेकिन अपने स्वाथी से ही देखता है ।
हुआ सो न्याय मेल मिलता है इन सब बातों का ? मेल मिले तो समझना कि बराबर है। कितने दुःख कम हो जोये ? ज्ञान प्रयोग में लायें तो?
और एक सेकिन्ट के लिए भी न्याय में फर्फ नहीं होता । अगर कुदरत अन्यायी होती तो किसीका मोक्ष हो नहीं होता । यह तो कहें कि अच्छे लोगोको मुसीबतें क्यों आती है । मगर बोग ऐसी कोई मुसीबत खड़ी नहीं कर सकते क्योंकी खुद यदि किसी बात में दखल नहीं करे तो कोई ताक़त ऐसी नहीं कि तुम्हारा नाम ले । खुदकी दखल की बजह से यह सब खड़ा हुआ है।
प्रैक्टिकल चाहिए, थ्योरी नहीं ! अब शास्त्रकार क्या लिखें, "हुआ सो न्याय" नहीं कहेंगे । वे तो न्याय सो ही न्याय कहेंगे । अबे मुए तेरी वजह से तो हम भटक गये ! अथाँत थ्योरेटिकल (सिद्धांतिक) ऐसा सो ही न्याय । प्रैक्टिकल बगैर दुनियामें कोई काम होता नहीं । अथाँत यह थ्योरेटिकल टिका नहीं है ।
अर्थात, तब क्या हुआ, सो ही न्याय । निविकल्प होना है तो जो हुआ है वह न्याय । विकल्पी होना हो तो न्याय खोजें । अर्थात् भगवान होना हो तो इस ओर जो हुआ सो न्याय और भटकना होतो यह न्याय खोजने भटकते रहना निरंतर ।
(13) लोभी को खटके नुकशान !
किसीका एक अकेला लड़का मर जाये तब भी न्याय ही है । वह कुछ किसी ने अन्याय किया नहीं है । इसमें भगवान का, किसीका अन्याय नहीं है। यह न्याय ही है । इसलिए हम कहते है कि संसार न्याय स्वरूप है । निरंतर न्याय स्वरूप में ही है।
यह संसार अकारण नहीं है । संसार न्याय स्वरूप है । बिलकुल, किसी समय भी अन्याय नहीं किया कुदरत ने । कुदरत जो उघर मनुण्य को काट देती है, एक्सिडेण्ट हो जाता ह, वह सब न्याय स्वरूप है. न्याय के बाहर कुदरत नहीं चली । यह तो बिना वजह नासमझीकी ठोकमठोक ..... और जीवन जीने की कला भी नहीं और देखो वरीझ वरीझ (वरीज ही वरीज, चिंता ही चिंता) इसलिए जो हुआ उसे न्याय कहें ।
आपने दुकानदार को सौ का नोट दिया । उसने पाँच रूपये का सामान दिया और पाँच आपको वापस किये? सारी धमाल में वह नब्बे वापस करना
किसी का एक अकेला लड़का मर गया. तब उसके घरवाले ही आँसूं बहायैगे । दूसरे आस-पास वाले सब क्यों आँसूं नहीं बहते ? वे अपने स्वार्थ पर ही रोते है । यदि सनातन वस्तुका ध्यान करें तो कुदरत न्याय संगत ही है।
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हुआ सो न्याय भूल गया । उसके पास कई सौ के नोट, कई दस के नोट बिना गिनती के हो। वह भूल गया और हमे पाँच लौटाये तब हम क्या कहेंगे? मैने आपको सौ का नट दिया था । वह कहे, नहीं । उसे वैसा ही याद है, वह भी झूठ नहीं बोलता । तब क्या करें हम ?
प्रश्रकर्ता : लेकिन वह खटक खटक करता है, इतने पैसे गये. मन चीख-पुकार करे ।
दादाश्री : वह खडकता है, तो जिसे खटकता है उसे नींद नहीं आयेगी। हमें क्या ? इस शरीर में जिसे चुभता है उसे नींद नहीं आयेगी । सभी को चुभे ऐसा कुछ थोड़ा है । लोभी को चुभे मूए को । तब उस लोभी से कहें, चुभता है तो सो जाओ न ! अब तो सारी रात सोना ही पड़ेगा ।
प्रश्नकर्ता : उसकी नींद भी जाये और पैसे भी जाये ।
दादाश्री : हा, इसलिए वहाँ हुआ सो करेक्ट (सही) यह ज्ञान अनुभव हुआ तो हमारा कल्याण होय गया ।
हुआ सो न्याय समझे तो सारे संसार का पार लग जाये ऐसा है । इस दुनिया में एक सेकिन्ड भी अन्याय होता नहीं है । न्याय ही हो रहा है । अथाँत बुद्धि हमें फँसाती है कि यह न्याय कैसे. कहलाये ? इसलिए (14) हम मूल बात बताना चाहते है कि कुदरत का है यह, ओर आप बुक्षिसे अलग हो जायें? अर्थात बुक्षि इसमें फँसाती है । एक बार समझ लेने के प्रश्चात (प्रश्चात) बुक्षि का मानेंगे नहीं हम । हुआ सो न्याय । अदालती न्याय में भूलचूक होगी सब । उलटा-सीधा हो जाये, पर इस न्याय में फर्फ नहीं, सटासट काट देने का ।
कम-ज्यादा बँटवारा, वही न्याय ! एक भाई हो, उसका बाप मर जाये तब सभी भाईयों की जमीन है वह उस बड़े भाई के हाथमें आये । अब बड़ा भाई है वह उस छोटे को धमकाता रहे बार बार पर ज़मीन देवे नहीं ? ढाई सौ बीघा जमीन थी । पचास - पचास बाघा देनी थी । चार जनों को पचास - पचास बीघे देनेकी थी । तब कोई
हुआ सो न्याय पच्चीस ले गया हो, कोई पचास ले गया हो, कोई चालीस ले गया हो और किसी के हिस्से मां पाँच ही आई हो ।
अब उस समय क्या समझना ? संसारी न्याय क्या करता है कि बड़ा भाई नंगा है, झूठा है । कुदरत का न्याय क्या कहता है, बड़ा भाई करेक्ट (सही) है । पचास वाले को पचास दी, बीस वाले को बीस दी, चालीस वाले को चालीस और यह पाँच वाले तो पाँच ही दी । जो बची वह, दूसरे हिसाब में जमा हो गई पिछले जन्म के । मेरी बात आपकी समझ में आती है ?
अथाँत यदि झगड़ा नहीं करना हो तो कुदरत के चलन से चलना, वर्ना यह संसार तो झगड़ा है ही । यहाँ न्याय नहीं हो सकता । न्याय तो निरीक्षण के लिए है कि मुझमें परिवर्तन, कछ फर्फ हुआ है । न्याय तो हमारा एक थर्मामीटर (तापमान यंत्र) है । बाक़ी व्यवहार में न्याय नहीं हो सकता न ! न्याय आया अर्थात मनुण्य पूर्ण हो गया । वहाँ तक इस और पड़ा हो, या तो अबोव नोर्मालिटी (सामान्य से उपर) अथवा बिलो नोर्मालिटी (सामान्य से निम्न) हो ।
अथाँत वह बड़ाभाई उस छोटे को नहीं देता, पाँच ही बीधा देता है न। वहाँ हमारे लोग न्याय करने जाये और उस बड़े भाई को बुरा ठहराये । (15) अब यङसब गुनाह है । तू भ्राँतिवाला, तब मुए आँतिको फिर सत्य माना । लेकिन छुटकारा ही नहीं, और सत्य माना है । इसलिए फिर इस व्यवहार को ही सत्य माना हो, तब मार खायेगा ही न । बाकी कुदरत के न्याय में तो कोई फूलचूक ही नहीं है।
अब वर्हा हम कहते नहीं कि तुम्है ऐसा नहीं करना चाहिए, इसको इतना करना चाहिए । वर्ना हम वीतराग नहीं कहलायें । यह तो हम देखा करें कि पिछला हिसाब क्या है !
हमसे कहे कि आप न्याय करें ।न्याय करने को, तब हम कहे कि भाई हमारा न्याय अलग तरह का होता है और इस संसार का न्याय अलग तरह का। हमारा कुदरत का न्याय है । वलर्ड का रेग्युलेटर (संसार का नियंत्रण)
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हुआ सो न्याय वकील..... ! उसमें उपर से वकील भी गालियाँ दे । ज्यादा समय जलदी देरी हो जाये न तब तुम्हारे अक्ल नहीं है गधे के जैसे हो.... फाँसा खाये मुआ ? इसके बजाय कुदरत का न्याय समझ लिया, दादा ने कहा है वह न्याय तो हल निकल जाये न ?
और कोर्ट में जाने में हर्ज नहीं है, कोर्ट में जाओ मगर उसके साथ बैठकर चाय पीयो । सब इस प्रकार चलो । वह नहीं माने तो कहना भलेही हमारी चाय मत ी, लेकिन पास बैठ ? कोर्टमें जाने में हर्ज नहीं, मगर प्रेमपूर्वक...
प्रश्रकर्ता : ऐसे लोग हमारा विश्वासघात भीकरे न ऐसे मनुष्य जो
हो....
हुआ सो न्याय है न, वह उसे रेग्युलेशन में (नियमनमें) ही रखता है । एस पल भर अन्याय नहीं होता । पर लोगो को अन्याय किस प्रकार लगता है ? फिर वह न्याय खोजे । अबे मुए, जितना देता है वही न्याय । तुझे दो नहीं दिये और पाँच क्यों दिए । देता है वही न्याय । क्योंकि पहले का लेन-देन है सब आमने-सामने? गुत्थी ही हे, हिसाब है । अथाँत न्याय तो थरमामीटर (थर्मामीटर) है । थरमामीटर से देख लेना कि मैंने पहले न्याय नहीं किया था इसलिए मुझे अन्याय हुआ है यह । इसलिए थरमामीटर का दोब नहीं है । आपको क्या लगता है ? यह मेरी बात कुछ हेल्प (मदद) करे ?
प्रश्नकर्ता : बहुत हेल्प (मदद) करे ।।
दादाश्री: संसार में न्याय मत खोजना । जो हो रहा है वह न्याय । हमें देखना है कि यह क्या हो रहा है । तब कहे, पचास बीघा के बजाय पाँच बीघा देता है । भाई से कहें, बराबर है । अब तू खुश है न ? वह कहे, हाँ? फिर दूसरे दिन साथ में भोजन लें उठे बैठे । वह हिसाब है । हिसाब से बाहर तो कोई नहीं है । बाप संतानो से हिसाब लिए बिना छोडता नहीं । यह तो हिसाब ही है, रिश्तेदारी नहीं है, आप रिश्तेदारी समझ बैठे थे ?ऐ
(16) कुछल मारा वह भी न्याय ! एक आदमी बसमें चढ़ने के लिए राईट साईड में खड़ा है, वह रोड के नीचे खड़ा है । रोंग साईड में एक बस आई । वह उसके उपर चढ़ गई और उसको मार डाला । यह कैसा न्याय कहलाये ?
प्रश्नकर्ता : ड्राईवर ने कुचल मारा, लोग तो ऐसा ही कहेंगे ।
दादाश्री : हाँ, अथाँत उल्टे रास्ते आकरमारा, गुनाह किया । सीधी राह आकर मारा होता तो भी उस प्रकार का गनाह कहलाता । यह तो उपर से डबल गुनाह करता है, इसे कुदरत कहती है, करेक्ट (सही) किया है । शोरगुल मचाओगे तो व्यर्थ जायेगा । पहले का हिसाब चुकता कर दिया । अब यह समझे नहीं न । सारी जिन्दगी तोड़ फोड़ में जाये । अदालतें और
दादाश्री : कुछ कर सके ऐसा नहीं । मनुष्य से कुछ हो सके ऐसा नहीं है । यदि आप ईमानदार है तो आपको कोई कुझ कर सके ऐसा नहीं है । ऐसा इस संसार का कानून है, प्योर होने पर फिर कोई करनेवाला, कुछ रहेगा नहीं । इसलिए भूल सुधारना चाहो तो सुधार लो ।
आग्रह छोड़ा वह जीता ! (17) इस संसार में तू न्याय देखने जाता है ? हुआ सो ही न्याय । तमाचे मारे तब इसने मुझ पर अन्याय किया ऐसा नहीं, लेकिन वह हुआ सो ही न्याय, ऐसा जब समझ में आयेगा तब यह सब फैसला आयेगा ।
हुआ सो न्याय नहीं कहोगे तो बुद्धि उछल-कूद, उछल-कूद करती रहेगी । अनंत जन्मों से यह बुद्धि गड़बड़ करती है, मतभेद खड़े करती है । वास्तव में बोलने का वक्त ही नहीं आये । हमें कुछ कहने का समय ही नहीं आये । जो छोड़ दे वह जीता । वह अपनी जिम्मेदारी पर आग्रह रखता है । बुद्धि गई यह किस तरह मालूम होगा ? न्याय खोजने मत जाना । जो हुआ उसे न्याय कहें, अर्थात वह बुद्धि जाती रही कहलाये । बुद्धि क्या करें । न्याय खोजती फिरे । और इसी कारन (कारण) यह संसार खड़ा रहा है इसलिए
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हुआ सो न्याय
आप अकेले की ही उगाही होगी?
हुआ सो न्याय न्याय मत खोजो! न्याय खोजना होता होगा ? जो हुआ सो करेक्ट (सही) तुरन्त तैयार । क्योंकि व्यवस्थित के अलावा कुछ होता ही नहीं है । बिना वजह, हाय-हाय हाय-हाय !!
महारानी ने नहीं, उगाही ने फँसाया ! बुद्धि तो भारी हँगामा खड़ा कर दे । बुद्धि ही सब बिगाड़ती है न । वह बुद्धि क्या है ? न्याय खोजे, उसका नाम बुद्धि । कहेगी, "क्यों कर पैसे नहीं दें, माल ले गया है न ?" यह "क्यों कर" पूछा वह बुद्धि । अन्याय किया वही न्याय । हम उगाही किया करें । कहना, "हमें पैसोकी बहुत आवश्यकता है और हमें अडचन है ।" और वापस आ जाना । लेकिन, क्योंकर नहीं दे वह ? कहा, इसलिए फिर वकील खोजने जाना पड़े । सत्संग भूल कर वहाँ जाकर बैठे फिर । जो हुआ सो न्याय कहें इसलिए बुद्धि जाती रहे ।
अंतर श्रद्धा में ऐसी श्रद्धा रखें कि जो हो रहा है वहन्याय । फिर भी व्यवहार में हमें पैसोंकी उगाही करने जाना पड़े तब इस श्रद्धा की वजह से हमारा मने बिगड़ ता नहीं । उन पर चिढ़ नहीं होती पड़े, तब इस श्रद्धा की वजहर से हमारा मन बिगड़ता नहीं । उन पर चिढ़ नहीं होती और हमें व्याकुलता भी नहीं होती । जैसे नाटक करतें हो न वैसे वहाँ बैठे । कहें, मै तो चार दफे आया, (18) लेकिन मिलना नहीं हुआ । इस बार आपका पुण्य हो अथवा मेरा पुण्य हो पर हम मिल गये है । ऐसा करके मजाक करते करते उगाही करें ।"और आप आनंद में हैं न, मैं तो अभी बड़ी मुश्किल में फँसा हूँ?" तब पूछे, "आपकी क्या मुश्किल है ?" तब कहे कि "मेरी मुश्किल तो मै ही जानता हूँ । नहीं हो तो किसी के पास से मुझे दिलवाईए ।" ऐसी वैसी बात करके काम निकालना । लोग तो अहंकारी है इससे हमारा काम हो जाये । अहंकारी नहीं होते तो कुछ चलता ही नहीं । अहंकारी को उसका
अहंकार जरा टोप पर चढ़ायें न तो सबकुछ कर देगा । "पाँच-दस हजार दिलवाईए" कहें, तो भी "हाँ, दिलवाता हूँ." कहेगा । अर्थात झगड़ा नहीं होना चाहिए । राग-द्वेष नहीं होना चाहिए । सौ घक खाये और नहीं दिया तो कोई बात नहीं । हुआ सो ही न्याय, कह देना । निरंतर न्याय ही । कुछ
प्रश्रकर्ता : नहीं, नहीं । सभी धंधेवालों की होती है ।
दादाश्री : सारा संसार महारानी के कारन (कारण) नहीं फँसा, उगाही के कारन (कारण) फँसा है । जो भी आता मुझे कहता कि "मेरी दस लाखकी उगाही आती नहीं है ।" पहले उगाही आती थी । कमाते थे तब कोई मझे कहने नहीं आता था, अब कहने आते हैं ! उगाही शब्द आपने सुना है कि?
प्रश्रकर्ता : नहीं, नहीं । सभी धंधेवालों को होती है ।
दादाश्री : सारा संसार महारानी के कारन (कारण) नहीं फँसा, उगाही के कारन (कारण) फँसा है । जो भी आता मुझे करता कि "मेरी दल लाख की उगाही आती नहीं है ।" पहले उगाही आती थी ? कमाते थे तब कोई मुझे कहने नहीं आता था, अब कहने आते हैं । उगाही शब्द आपने सुना है कि ?
प्रश्नकर्ता : कोई बुरा शब्द हमारी बही में है, वह उगाही ही है न ।
दादाश्री : हाँ, उगाही ही है न । वह चुपडावे बराबर की चुपडावे. डिक्षनरी (शब्दकोश) में नहीं हो ऐसे शब्द भी निकाले । फिर हम डिक्षनरी में खोजे कि यह शब्द कहाँ से निकला ? इस में वह शब्द होता नहीं । ऐसे सरफिरे होते है । लेकिन उनकी अपनी जिम्मेवारी पर बोलते है न । उसमें हमारी जिम्मेवारी नहीं न, उतना अच्छा है।
आपको रूपये नहीं लौटाते वह भी न्याय है, लौटाते है वह भी न्याय है। यह सब हिसाब मैने बहुत साल पहले निकाल रखा था । अर्थात (19) रूपया नहीं लौटाये, उसमें किसी का दोष नहीं है । उसी प्रकार लौटाने आते है, उसमें उसका क्या एहसान ? इस संसार का संचालन तो अलग तरीके से होता है!
व्यवहार में दुःख का मूल ! न्याय खोजते तो दम निकल गया है । मनुष्य के मनमें ऐसा होता है कि
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हुआ सो न्याय और हुआ वही का वही फिर । आखिरकार वही का वही आया हो । तो फिर हम पहले मे क्याँ न समझ जायें । यह तो केवल अहंकार की दखल (अड़चन)
हुआ सो न्याय मैं ने इसका क्या बिगाड़ा है जो यह मेरा बिगाड़ता है ।
प्रश्नकर्ता : ऐसा होता है । हम किसीका नाम नहीं लेते फिर भी लोग हमें क्यों डंडे मारते है ?
दादाश्री: हाँ, इसलिए तो इन अदालतों, वकील सभी का चलता है। ऐसा नहीं होने पर अदालतों का कैसे निर्वाह होता । वकील का कोई ग्राहक ही नहीं होता न ! लेकिन वकील भी कैसे पुण्यशाली. कि मुवक्किल भी सुबह उठकर जल्दी जलदी आये तब वकील साहब हज़ामत बनाते हो, तो वह बैठा रहे कुछ देर । साहब को घर बैठे रूपया देने आये । साहब पुण्यशाली है न! नोटिस लिखवा जाय और पचास रूपये दे जाये, अर्थात न्याय नहीं खोजोगे तो व्यवहार ढंग से चल निकलेगा । आप न्याय खोजते है यही उपाधी (तकलीफ) है।
प्रश्रकर्ता : लेकिन दादा, वक्त ऐसा आया है कि किसी का भला करते हो तो वही डंडे मारे ।
दादाश्री : उसका भला किया और वह फिर डंडे मारता है, उसका नाम ही न्याय । और वह मुँह पर नहीं करना, मुँह पर कहें तो फिर उसके मन में ऐसा होगा कि ये चींकच हो गये है ।
प्रश्नकर्ता : हम किसी के साथ बिलकुल सीधे चलते हो फिर भी हम पर लाठी चलाये ।
दादाश्री : लाठी चलाई वही न्याय ! शांति से जीने नहीं देते ।
प्रश्रकर्ता : बुशकोट पहना हो तो कहेंगे, बुशकोट क्यों पहना है ? और (20) यह टीशर्ट पहना, तो बोलेंगे टीशर्ट क्यों पहना ? उसे उतार दें तब भी कहें, क्याँ उतार दिया ?
दादाश्री : वही न्याय, हम कहते है न । और उसमें न्याय खोजने गयें, उसकी मार पडती है यह सब । अर्थात न्याय मत खोजना । यह हमनें सादीसीधी खोज की है । न्याय खोजने की वजह से तो इन सभी को सोट पड़े हैं।
हुआ सो न्याय । इसलिए न्याय खोजने मत जाना । तेरे फाधर (पिताजी) फादर कहे "तू ऐसा है, वैसा है ।" वह हुआ और वही न्याय है । उसकी फ़रियाद (शिकायत) मत करना कि आप ऐसा क्यों कर बोले ? यह बात अनुभव की है। और वह आखिर थक कर भी न्याय तो करना ही पड़ेगा न! स्वीकार करते होंगे कि नहीं लोग ? अर्थात ऐसे मिथ्या प्रयत्न करें लेकिन रहेगा वही का वही ही । तब स्वेच्छा से स्वीकार कर लिया होता तो क्या गलत होता ? हाँ उन्हे मुंह पर मत कहना, वर्ना फिर वे उलटी राह चलने लगें। मन ही मन समझ लेना कि हुआ सो नही न्याय ।
अब बुद्धि का प्रयोग मत करो. जो होता है उसे न्याय कहो । यह तो कहेगा "तुम्हे किस ने कहा था जो जाकर पानी गरम रखा ?""अबे, हुआ सो ही न्याय ।" यह न्याय समझ में आ जाये तो."अब में फ़रियाद नहीं करूँगा।" कहेगा । कहेगा कि नहीं कहेगा?
हम किसी को भोजन करने बिठा यें, भखें हो इसलिए । और बाद में वे कहें, "तुम्हें किस ने कहा था जिमाने को । हमे व्यर्थ मुशीबत में डाला, हमारा समय बिगाड़ा!" ऐसा बोलें तब हमें क्या करना ? विरोध खड़ा करना? यह हुआ सो ही न्याय है ।
घर में दो में से एक बुद्धि चलाना बंद कर दे न, तो सब ढंग से चलने लगे । वह उसकी बुद्धि चलाये तो फिर क्या होगा ? रात को खाना भी नहीं भायेगा फिर ।
(21) बरसात नहीं बरसती वह न्याय है । तब किसान क्या कहेंगा ? भगवान अन्याय करता है । वह अपनी नासमझी से बोलता है, इसमें क्या बरसात होने लगेगी ? अच्छा बरसती हो तो बरसात का उसमें क्या नुकशान होनेवाला था ? एक जगह कुदरत ने सब व्यवस्थित किया हुआ है । आपको
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हुआ सो न्याय लगता है कुदरत की व्यवस्था अच्छी है ? कुदरत सब न्याय ही करती है ।
अर्थात सैद्धांतिक बाते है यह सभी । बुद्धि हटाने के लिए यह एक ही कानून है । जो हो रहा है उसे न्याय मानोगे उससे बुद्धि जाती रहेगी । बद्धि कहाँ तक जिवित रहेगी ? हो रहा है उसमें न्याय खोजने निकले तब तक बुद्धि जिवित रहेगी । यह तो बुद्धि भी समझ जाये । बुद्धि को लाज आये फिर । उसे भी लाज आये, अरे! अब यह स्वामी ही ऐसा बोलते है ईससे तो अपना ठिकाना कर लेना अच्छा ।
मत खोजना न्याय इसमें ! प्रश्नकर्ता : बुद्धि निकालनी ही है । क्योंकि बहुत मार खिलाती है ।
दादाश्री : तब बुद्धि निकालनी हो तो बुद्धि कुछ जाती नहीं रहेगी । बुद्धि तो हम उसके कारन (कारण) निकाले न तो यह कार्य जाता रहेगा । बुद्धि वह कार्य है, उसके कारन (कारण) निकाले न तो यह कार्य जाता रहेगा। बुद्धि वह कार्य है, उसके कारन (कारण) कौन-से ? जो हुआ, वास्तवमें क्या हुआ, उसे न्याय कहने में आये, तब वह जाती रहेगी । जगत क्या कहता है ? वास्तव में हुआ उसे चला लेना पडेगा । और न्याय खोजते रहने पर झगड़े चलते रहेंगे.
अर्थात बिना परिवर्तन के बुद्धि नहीं जायेगी । बद्धि जाने का मार्ग. उसके कारनो (कारणो) का सेवन नहीं करेंगे तो बुद्धि हटाने का कार्य नहीं होगा।
प्रश्रकर्ता : आपने बताया न कि बुद्धि कार्य है और उसके कारन (कारण) खोजे तो वह कार्य बद हो जाये ।
(22) दादाश्री : उसके कारनो (कारणो) में, हम हैं तो न्याय खोजने निकले हैं वह उसका कारन (कारण) है न्याय खोजना बंध कर दें तो बुद्धि जाती रहेगी । न्याय किस लिए खोजते हो ? तब वह बहू क्या कहेगी ? "लेकिन तू मेरी सास को नहीं जानती, मैं आई तबसे वह दुःख देती है, इसमें
हुआ सो न्याय मेरा कसूर क्या है ?" ___कोई बिना पहचाने दुःख देता होगा ? उसके बहीवाते में जमा होगा तो तुझे बार बार दिया करता है । तब कहेगा, "लेकिन मैंने तो उसका मँह भी नहीं देखा था ।" "अबे, तूना इस जन्ममें नहीं देखा पर अगले जन्म का बहोखाता क्या कहता है ?" इसलिए जो हुआ सो ही न्याय!
घरमें लड़का दादागीरी करता है न? वह दादागीरी सो ही न्याय । यह तो बुद्धि दिखाती है, लड़का होकर बाप के सामने दादागीरी ? वह जो हुआ सो ही न्याय!
अर्थात यह “अक्रम विज्ञान" क्या कहता है ? देखो यह न्याय! लोग मुझे पूछते है, "आपने बुद्धि किस तरह निकाल दी ?" न्याय खोजा नहीं इसलिए बुद्धि जाती रही । बुद्धि कहाँ तक खडी रहे ? न्याय खोजे और न्याय को आधार माँगे तो बुद्धि खडी रहे, तब बुद्धि कहेगी, "हमारे पक्षमें है भाईजी।" कहेंगे, "इतनी उमदा (उम्दा) नौकरी की और ये डिरेक्टरर्स (डारेक्टर्स) किस आधार पर उल्टा बोलते है ?"वह आधार देते हो ? न्याय खोजते हो? वे जो बोलते है वही करेक्ट (सही) है अब तक क्यों नहीं बोलते थे ? किस आधार पर नहीं बोलते थे ? अब कौन से न्याय के आधार वे बोलते है ? सोचने पर नहीं लगता कि वे जो बोल रहै है वह प्रमाणमान से बोल रहे है । अबे, पगारवृद्धि नहीं करता वहीं न्याय है । उसे अन्याय किस प्रकार कहलाये हमसे ?
बुद्धि खोजे न्याय ! यह सब तो मोल लिया हुआ दुःख है और थोड़ा बहुत जो दुःख है, वह बुद्धि की वजह से है । बुद्धि होती है न सभी में ? वह डेवलप (विकसित) (23) बुद्धि करवाती है । नहीं हो वहाँ से दु:ख ढूंढ निकाले । मेरे तो बुद्धि डेवलप (विकसित) होने के बाद जाती रही । बद्धि ही ख़त्म हो गई । बोलिए, मज़ा आयेगा कि नीं आयेगा ? बिलकुल, एक सेन्ट (परसेंट) (पैसाभर) बुद्धि रही नहीं है । तब एक आदमी मुझसे पूछता है कि, "बुद्धि
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हुआ सो न्याय किस तरह जाती रही ? तू चली जा कहने से ?" मैंने कहा, "नहीं, अबे, ऐसा नहीं करते ।" उसने तो अब तक हमारा रोब (रौब) रखा । दुविधा में हो तब खरे वक़्त पर, "क्या करना, क्या नहीं ?" उसका सभी मार्गदर्शन किया, उसे निकाल बाहर करना होता होगा ? मैंने उसे समझाया, "जो न्याय ढूँढता है न, उसके वहाँ बुद्धि सदा के लिए निवास करती है ।" "जो हुआ सो न्याय" ऐसा कहने वाले की बुद्धि जाती रहती है । न्याय खोजने गये वह
बुद्धि ।
प्रश्रकर्ता : लेकिल दादा, जो आया उसे स्वीकार लेना जीवन में ।
दादाश्री : मार खाकर स्वीकार करना उसके बजाय खुशी-खुशी स्वीकार कर लेना अच्छा ।
प्रश्रकर्ता : संसार है, बाल-बच्चे है, लड़के की बहू है, यह है, वह हा। इसलिए संबंध तो रखना होगा ।
दादाश्री : हाँ सब रखने का । प्रश्रकर्ता : तब उसमें मार पडती है तो क्या करना ?
दादाश्री: संबंध सभी रखकर और मार पडे, वह स्वीकार लेना है हमें। वर्ना मार पड़े तो हम कर भी क्या सकते है ? दुसरा कोई उपाय है?
प्रश्नकर्ता : कुछ नहीं, वकीलों के पास जाना ।
दादाश्री : हाँ दूसरा क्या होगा। वकील रक्षा करे कि उनकी फ़ीसें वसूल करें?
"हुआ सो न्याय, वहा," वहाँ बुद्धि “आउट''! न्याय ढूँढना हुआ इसलिए बुद्धि खड़ी हो जाये, बुद्धि समझे कि अब मेरे बगैर चलने वाला नहीं, और हाम कहें कि वह न्याय है, इस पर बुद्धि कहेगी, "अब इस घरमें अपना रोब (रौब) नहीं जमेगा" वह विदायमान ले ले अऔ चली जाये । कोई उसका समर्थक हो वहाँ घुस जाये । उसक
हुआ सो न्याय आसक्ति वाले तो बहुत लोग होते है ना । मनौती माने, मेरी बुद्धि बढ़े ऐसी । और सामने तरजू में उतनी कुढ़न बढ़ती ही जाये । बेलेन्स (समतुला (संतुलन)) तो धारण करे न हमेशा । बेलेन्स (समतुला (संतुलन)) उसके सामनेवाले पलड़ेमें चाहिए ही । हमारी बुद्धि खतम इसलिए कुढ़न खतम ।
विकल्पों का अंत वही मोक्षमार्ग! अर्थात हुआ उसे न्याय कहोगे न तो निर्विकल्प रहोगे और लोग निर्विकल्प होने के लिए न्याय ढूँढने निकले हैं । विकल्पोंका एण्ड (अंत) हो वह रास्ता मोक्ष का ! विकल्प खड़े नहीं हो ऐसा है न अपना मार्ग ?
महेनत किये बगैर हमारे अक्रम मार्ग में मनुष्य आगे बढ़ जाये । सो न्याय । बुद्धि जब विकल्प करवाये न, तब कह देना, जो हुखा सो न्याय । बुद्धि न्याय ढूँढेने निकले हैं । विकल्पों का एण्ड (अंत) हो वह रास्ता मोक्ष का ! विकल्प खड़े नहीं हों ऐसा है न अपना मार्ग?
महेनत किये बगैर हमारे अक्रम मार्ग में मनुष्य आगे बढ़ जाये । हमारी चाबियाँ ही ऐसी हैं कि बिना महेनत आगे बढ़ जाये ।
अब बुद्धि जब विकल्प करवाये न, तब कह देना, जो हुआ सो न्याय। बुद्धि न्याय ढूँढे कि मुझ से छोटा है, मयाँदा नहीं रखता । वह रखी वही न्याय
और नहीं रखी वह भी न्याय । जितना बुद्धि का निर्विवाद होगा उतना निर्विकल्प होगा फिर !
यह विज्ञान क्या कहता है ? न्याय तो सारा संसार खोज रहा है! उसके बजाय हम ही स्वीकार करले कि हुआ सो ही न्याय । फिर जज भी नहीं चाहिए अऔ वकील भी नहीं चाहिए । और वर्ना आखिर वही रहे न फिर, मार खाकर भी ?
किसी कोर्टमें नहीं मिले संतोष ! और शायद माग लो कि किसी एक भाई को न्याय चाहिए । तो हमने निम्न कोर्ट में से जजमेन्ट करवाया । वकील लड़े बाद में जजमेन्ट आया,
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________________ हुआ सो न्याय न्याय हुआ / तब कहता है, नहीं यह न्याय नहीं मुझे संतोष नहीं है / न्याय हुआ फिर भी संतोष नहीं / तब अब (25) क्या किया जाये ? उपरी कोर्ट में चलो / तब डिस्ट्रिक्ट में गये / वहाँ के जजमेन्ट से भी संतोष नहीं हुआ / अब क्या करें / तब कहे, नहीं वहाँ हाईकोर्ट में ! वहाँ भी संतोष नहीं हुआ फिर सुप्रीमकोर्ट में गये, वहाँ भी संतोष नहीं हुआ / आखिर प्रेसिडन्ट से कहा / फिर भी न्याय नहीं होता, मार खाकर मरते हैं / यह न्याय ही मत खोजना कि यह मुझें गालियाँ क्यों दे गया, कि मुवक्किल मुझे मेरी वकालत का महेनताना क्यों नहीं देता / नहीं देता वह न्याय है / बाद में दे जाये तब भी न्याय है / न्याय तू खोजना मत / न्याय : कुदरती और विकल्पी ! दो प्रकार के न्याय / एक विकल्पों को बढ़ाने वाला न्याय और एक विकल्पों को घटानेवाला न्याय / बिलकुल सच्चा न्याय विकल्पों को घटाता है कि हुआ सो न्याय ही है / अब तू इस पर दूसरा दादा दापर मत करना / तू अब अपनी अन्य बातों पर ध्यान दे, इस पर दावा दापर करेगा इससे तेरी अन्य बाते. रह जायेगी। न्याय ढूँढने निकले इससे विकल्प बढ़ते ही जायें और कुदरती न्याय विकल्पों को दूर करता चलें / हुआ, होगा सो न्याय / और उसके उपरान्त फिर पाँच आदमी, पँच कहे वह भी उसके विरूद्ध में जाये / तब वह उस न्याय के माने नहीं अर्थात किसी की माने नहीं / फिर विकल्प बढ़ते ही जाये। अपने इर्द-गिर्द जाल ही भुन रहा है वह आदमी कुछ प्राप्त नहीं करता / पारावर (झत्यन्त) दु:खी होगा / इसके बजाय पहले से ही श्रद्धा रखे कि हुआ सो न्याय / और कदरत हमेशा न्याय ही किया करती है, निरंतर न्याय ही कर रही है ओर वह प्रमाण नहीं जुटा सकती / प्रमाण "ज्ञानी" जुटाये कि न्याय कि दृष्टिसे ? जो हुआ "ज्ञानी" बता दै / उसे संतोष कर दे और तब निराकरण आये / निर्विकल्पी होवे तो निरकरण आये / - जय सच्चिदानंद प्राप्तिस्थान अहमदाबाद : श्री दीपकभाई देसाई, दादा दर्शन, 5, ममतापार्क सोसायटी, नवगुजरात कॉलेज के पीछे, उस्मानपुरा, अहमदाबाद-३८००१४. फोन: 7540408,7543979, E-mail : dadaniru@vsnl.com मुंबई : डॉ. नीरबहन अमीन, बी-904, नवीनआशा एपार्टमेन्ट, दादासाहेब फालके रोड, दादर (से.रे.), मुंबई-४०००१४ फोन : 4137616, मोबाईल : 9820-153953 वडोदरा: श्री धीरजभाई पटेल, सी-१७, पल्लवपार्क सोसायटी, वी.आई.पी.रोड, कारेलीबाग, वडोदरा. फोन:०२६५-४४१६२७ सुरत : श्री विठ्ठलभाई पटेल, विदेहधाम, 35, शांतिवन सोसायटी, लंबे हनुमान रोड, सुरत. फोन : 0261-8544964 राजकोट : श्री रूपेश महेता, ए-3, नंदनवन एपार्टमेन्ट, गुजरात समाचार प्रेस के सामने, K.S.V.गृह रोड, राजकोट फोन:०२८१-२३४५९७ दिल्ही: जसवंतभाई शाह, ए-24, गुजरात एपार्टमेन्ट, पीतमपुरा, परवाना रोड, दिल्ही. फोन : 011-7023890 चेन्नाई: अजितभाई सी. पटेल, 9, मनोहर एवन्यु, एगमोर, चेन्नाई-८ फोन : 044-8261243/1369, Email : torino@md.3.vsnl.net.in U.S.A.: Dada Bhagwan Vignan Institue : Dr. Bachu Amin, 902 SW Mifflin Rd, Topeka, Kansas 66606. Tel: (785) 271-0869, Fax : (785) 271-8641 E-mail : shuddha@kscable.com, bamin@kscable.com Dr. Shirish Patel, 2659, Raven Circle, Corona, CA 92882 Tel. : 909-734-4715, E-mail : shirishpatel@mediaone.net U.K.: Mr. Maganbhai Patel, 2, Winifred Terrace, Enfield, Great Cambridge Road, London, Middlesex, ENI IHH, U.K. Tel: 020-8245-1751 Mr. Ramesh Patel, 636, Kenton Road, Kenton Harrow. Tel.:020-8204-0746, E-mail: dadabhagwan_uk@yahoo.com Canada: Mr. Bipin Purohit, 151, Trillium Road, Dollard DES Ormeaux, Quebec H9B 1T3, CANADA. Tel.: 514-421-0522, E-mail : bipin@cae.ca Africa: Mr. Manu Savla, PISU & Co., Box No. 18219, Nairobi, Kenya. Tel : (R)254-2-744943 (O)254-2-554836 Fax : 254-2-545237, E-mail : pisu@formnet.com Internet website: www.dadabhagwan.org, www.dadashri.org