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________________ हुआ सो न्याय आया था? अब से ख्याल रखना । दादाश्री : वह कब कहना चाहिए ? चाय-जलपान करते हो, हँसते हो, तब हँसते हँसते हम बात कर दें । इस समय हमने यह बात जाहिर की न ? इस प्रकार हँसते हो तो बात जाहिर कर सकते हो। प्रश्नकर्ता : अर्थात सामनेवाले को चोट हीं पहुँचे. इस तरह करना न ? दादाश्री : हाँ, इस तरह कहें तो वह सामने वाले को हेल्प करे । लेकिन सबसे अच्छे से अच्छा रास्ता यही है कि मेरी भी चूप और तेरी भी चूप !!! उसके समान एक भी नहीं क्यांकि जिसे भाग खड़ा होना हे वह जरासी भी शिकायत नहीं करेगा। प्रश्नकर्ता : सलाह के तौर पर भी नहीं करना ? वहाँ चुप रहना क्या ? दादाश्री : वह उसका सब हिसाब लेकर आया है । सयाना होने के लिए भी वह सब हिसाब लेकर ही आया है । हम क्या करते है कि जो यहाँ से निकलना हो तो भाग खड़े हो । और भाग जाना होना हो तो कुछ बोलना मत । रात को यदि भाग जाना हो और हम शोर मचायें तो वहाँ पकड़े जाये न ! भगवान के यहाँ कैसा होये ? भगवान न्याय स्वरूप नहीं है और भगवान अन्याय स्वरूप भी नहीं है। किसी को दु:ख नहीं हो वहीं भगवान की भाषा है । इसलिए न्याय-अन्याय वह तो लोकभाषा है। चोर चोरी करने में धर्म मानता है । दानवीर दान देने में धर्म मानता है विह लोकभाषा है । भगवान की भाषा नहीं है । भगवान के वहाँ ऐसा वैसा कुछ है ही नहीं । भगवान के वहाँ तो इतना ही है कि किसी जीवको दु:ख नहीं हो, यही हमारी आज्ञा है ! हुआ सो न्याय न्याय-अन्याय तो एक कुदरत ही देखती है । बाकी वह जो यहाँ संसारी न्याय-अन्याय, वह दुश्मनों को, गुनहगारो को हेल्प करता है । कहेंगे, "होगा बेचारा, जाने दो न!" तब गुनहगार भू छूट जाये । “ऐसा ही होवे" कहेंगे । कुदरत का वह न्याय उसमें छूटकारा ही नहीं । उसमें किसी का नहीं चलता । अपने दोष दिखाये, अन्याय । केवल अपने दोष के कारन (कारण) संसार सारा गैरकानूनी लगता है। गैरकानूनी हुआ ही नहीं किसी पल । बिलकुल न्याय में ही होता है । यहाँ की अदालतों के न्याय में फर्फ पड़ जाये । वह गलत निकले, मगर इस कुदरत के न्याय में फर्फ नहीं होता। प्रश्नकर्ता : अदालती न्याय वह कुदरत का न्याय सही कि नहीं । दादाश्री : वह सब कुदरत ही है । लेकिन कार्टमें हमे ऐसा लगे कि इस जज ने ऐसा किया । ऐसा कुदरत में नहीं लगता न ? मगर वह तो बुद्धि की तकरार है। प्रश्रकर्ता : आपने कुदरत के न्याय की तुलना कम्प्यूचर से की मगर कम्प्युटर तो मिकेनिकल होता है। (11) दादाश्री : उसके समान समझाने के लिए और कोई साधन है नहीं इसलिए यह मैंने तुलना की है । बाकी, कम्प्युटर तो कहने के खातिर है कि भाई इस कम्प्युटर में इस ओर फीड किया, इस प्रकार इसमें खुद के भाव पड़ते हैं । अर्थात एक जन्म के भावकर्म है वे वहाँ पड़ने के बाद दूसरे जन्म में उसका परिणाम आता है । अर्थात उसका विसर्जन होता है। वह इस व्यवस्था के हाथों में है । वह एक्झेक्ट अदल इन्साफ ही करती है । जो न्याय संगत हो वैसा ही करना है । बाप अपने बेटेको मार डाले ऐसा भी न्याय में आता है । फिर भी वह न्याय कहलाये । न्याय तो न्याय ही कहलाये, क्योंकि जैसा बाप-बेटे का हिसाब था वैसा हिसाब चुकता हुआ । वह चुकावा हो गया । इसमें चुकावा ही होता है, और कुछ नहीं होत ।
SR No.009586
Book TitleHua So Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Foundation
Publication Year2001
Total Pages17
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size288 KB
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