Book Title: Haribhadra ke Grantho me Drushtant va Nyaya Author(s): Damodar Shastri Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 2
________________ आ. हरिभद्र के ग्रन्थों में दृष्टान्त व न्याय / १२९ विस्तृत प्रायाम दिया जा सकता है। इस स्थिति में, प्रत्येक उपदेशक आचार्य के लिए यह उचित है कि वह उक्त विभाजन को ध्यान में रख कर ही अपना व्याख्यान करे । * आ. सिद्धसेन ( ५ वीं शती) ने हेतुगम्य और ग्रहेतुगम्य इस प्रकार तत्वों का विभाजन किया और कहा कि हेतुगम्य पदार्थों को भी केवल प्रागम- प्रामाण्य से प्रतिष्ठापित कर समझाने का यत्न करने वाला वक्ता / उपदेशक अपने सिद्धान्त का पोषक / प्रचारक तो क्या होगा, वास्तव में विराधक ( विनाशक ) ही होगा। इसी प्रकार, प्राचीनता का नाम लेकर, किसी बात को अन्धश्रद्धावश ज्यों का त्यों, बिना 'ननु नच किए, सत्य रूप में स्वीकार कर लेना, या नवीन चिन्तन को, भले ही वह युक्तिसंगत ही हो, नकार देना, किसी तरह भी उचित प्रतीत नहीं होता । " वास्तव में, उपदेश या व्याख्यान में वक्ता को उदारता से काम लेना चाहिए। यहाँ तक कि दूसरे सम्प्रदाय आदि के सिद्धान्तों को भी प्रस्तुत किया जाना चाहिए, बशर्ते उनसे अपने मत की पुष्टि हो सके।" आ. हरिभद्र का न्याय व दृष्टान्त के प्रति दृष्टिकोण उक्त प्राचार्यों ने स्वतन्त्र चिन्तन व तार्किक परीक्षण की जो श्रधार - शिला रखी, प्रा. हरिभद्र ने उस पर एक विशाल भवन खड़ा कर दिया था. हरिभद्र के समय तक जैन संघ के दिगम्बर श्वेताम्बर परम्परा भेद तो दृढमूल हो ही गये ये व्यवहारधर्म व प्राचार को लेकर कुछ मान्यता भेद भी पनपने लगे थे चैत्यवास जैसी शिथिलता पोषक परम्परा फल-फूल रहीं थीं। प्रत्येक सम्प्रदाय अपनी मान्यता को ग्रागमिक / प्रचीन बताकर उसे ही सत्य सिद्ध करने का प्रयास कर रहा था। उक्त मान्यता को चुनौती देने पर श्रार्षविरुद्धता का आरोप लगाना सहज था । स्वतन्त्र चिन्तन का मार्ग प्रायः अवरुद्ध था । ऐसी स्थिति में विषम परिस्थिति में प्रसत्य सत्य के रूप J प्रा. हरिभद्र ने स्पष्ट उद्घोषणा की चूंकि वर्तमान में, और सत्य असत्य के रूप में प्रतिष्ठित हो रहा है, ऐसी स्थिति में युक्ति आदि से परीक्षा करना ही उचित होगा। १० "जैसे कसौटी पर कस कर ही सोने की परीक्षा होती है, वैसे ही एक तटस्थ व्यक्ति की तरह सिद्धान्त की परीक्षा करनी चाहिए।"१" था. हरिभद्र ने जहाँ एक ओर शुष्क तर्कवाद की निन्दा की, वहाँ अन्धश्रद्धा पर भी करारा प्रहार करते हुए कहा कि " दुराग्रह त्याग कर युक्ति व तर्कों से परीक्षण करने के संगत लगे, उसी को स्वीकार करना चाहिए"। अनन्तर जो बात युक्ति प्रा. हरिभद्र ने श्रागमगम्य ( अहेतुगम्य ) पदार्थों के सम्बन्ध में प्राचीन प्राचार्यों के मत को यथावत् अपना समर्थन दिया। उन्होंने अलौकिक प्रतीन्द्रिय पदार्थों को मात्र भागमगम्य बताते हुए, उन्हें अनुभूति व श्रद्धा का विषय बताया, १४ तथा उनके सम्बन्ध में शुष्क तर्क के प्रयोग को अनुचित बताया । १५ " प्रा. हरिभद्र के मत में श्रोता या जिज्ञासु व्यक्ति के समक्ष उपदेशक के लिए यह 'उचित है कि वह विषय-वस्तु के अनुरूप ( ग्रागम मात्रगम्य पदार्थों को श्रागम से हेतुगम्य पदार्थों को युक्ति, न्याय, दृष्टान्त आदि द्वारा इस प्रकार ) युक्ति व आगम-इन दोनों ही प्रमाणों को प्रस्तुत करते हुए इस तरह व्याख्यान करे जिससे तथ्य हृदयंगम हो जाए ।१६ हेतुगम्य पदार्थों के निरूपण में 'दृष्टान्त' के प्रयोग का भी उन्होंने प्रावधान किया । १७ प्रा. हरिभद्र के अनुसार शास्त्र के प्रति श्रोता का बहुमान भाव जागृत हो इस दृष्टि से भी Jain Education International For Private & Personal Use Only धम्मो दोवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है www.jainelibrary.orgPage Navigation
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