Book Title: Haribhadra ke Grantho me Drushtant va Nyaya Author(s): Damodar Shastri Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 6
________________ आ. हरिभद्र के ग्रन्थों में दृष्टान्त व न्याय / १३३ प्रादि से होने वाले पुण्य से धोया जा सकता है दोनों ही बातें अनुचित हैं। उक्त तथ्य को हृदयंगम कराने के लिए प्रा. हरिभद्र ने उक्त न्याय का उपयोग किया है । उन्होंने कहा कि कोई व्यक्ति वैभवादि की इच्छा इसलिए करता है कि उस सम्पत्ति से दानादि धर्म (शुभ कार्य) किए जा सकेंगे तो वह अनुचित करता है क्योंकि इससे तो यही अच्छा होगा कि वैभवादि की इच्छा ही न की जाये ।५० प्रा. हरिभद्र ने उपर्युक्त लौकिक न्यायों के अतिरिक्त, कुछ शास्त्रीय न्यायों का भी प्रयोग किया है: ५. सामान्योक्तावपि प्राधान्यख्यापनार्थ विशेषाभिधानम् (प्रधानता बताने के लिए विशेष-कथन) प्रस्तुत न्याय नन्दी सूत्र (गाथा-६) पर की गई वत्ति में प्रतिपादित है।५१ धर्म-संघ एक महान् रथ है जिसकी पताका 'शील' है, और तप व नियम उसके घोड़े हैं-ऐसा आगम (नन्दी सूत्र) में वर्णित है। यहां यह जिज्ञासा स्वाभाविक है कि 'शील' में तप व नियम समाविष्ट ही हैं, फिर इनका पृथक कथन क्यों किया गया ? इस जिज्ञासा के समाधान हेतु प्रस्तुत न्याय उपस्थापित किया गया है। इस न्याय के अनुसार तप व नियम की शील-व्रतों में भी प्रधानता/ विशेषता बताने के लिए विशेषरूप से (पृथक रूप से) उनका उल्लेख किया गया है । ५२ ६. जातीय वस्तुओं का प्रतिनिधित्व (एक-ग्रहणे तज्जातीय-ग्रहणम्) इस न्याय को दशवकालिक-वृत्ति (४/सू. पर, पृ. ९५, तथा ६/९ पर पृ. १३१), तथा पंचवस्तुक (९९) की स्वोपज्ञ टीका में उपयुक्त किया गया है।। ___ इस न्याय का हार्द यह है कि किसी एक वस्तु का कथन हो तो उस जाति की अन्य वस्तुओं का कथन भी समझ लेना चाहिए। जैसे प्रारम्भ (हिंसा) का त्याग कहा गया हो तो परिग्रह का भी त्याग समझ लेना चाहिए। इसी प्रकार, हिंसा करने-करवाने का जहाँ निषेध है, वहाँ हिंसा के अनुमोदन का भी निषेध समाविष्ट है ।५४ ७. विशेषणान्यथानुपपत्ति न्यायःइस न्याय का निदर्शन नन्दी सूत्र (गाथा-४० पर) की वृत्ति में हुआ है। जैसे, 'सवत्सा धेनु' ऐसा कहने पर गौ का ही बोध होता है, न कि घोड़ी का। क्योंकि 'सवत्सा' विशेषण घोड़ी के लिए संगत नहीं हो सकता। उसी प्रकार 'नित्यानित्यज्ञाता' इस कथन में 'नित्यानित्य' पद से 'वस्तु' का अध्याहार स्वतः हो जाता है, क्योंकि नित्यानित्यात्मकता विशेषण वस्तु में ही घटित होता है । ८. पदार्थ-कथन-माध्यम से व्याख्यान (तत्त्वपर्यायाख्यानम) इस न्याय का उल्लेख दशवकालिक वृत्ति (२/१ गाथा, नियुक्ति १५८, पृ. ५६ ) में हुमा है । श्रमण के स्वरूप के प्रसंग में नियुक्तिकार 'श्रमण' के पर्याय (अनगार, पाषण्डी, चरक, तापस, निर्ग्रन्थ, संयत, भिक्षु) उपस्थापित करते हैं । ५५ इसका औचित्य बताने के लिए प्रा. हरिभद्र प्रस्तुत न्याय (तत्त्वपर्यायाख्यानम्) का सहारा लेते हैं और कहते हैं कि वस्तु के स्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीय है। www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use OnlyPage Navigation
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