Book Title: Haribhadra ke Grantho me Drushtant va Nyaya Author(s): Damodar Shastri Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 5
________________ चतुर्थ खण्ड / १३२ तब सभी-व्यक्तियों (तथाकथित देवताओं) के प्रति वन्दना का भाव रखना चाहिए। कभी न कभी यथार्थतः वन्दनीय व्यक्ति मिलेगा ही और अभीष्ट फल प्राप्त हो ही जाएगा। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि उक्त निर्देश साधना का निम्नकोटि में स्थित व्यक्ति के लिए है।४२ प्रा. अकलंक आदि प्राचार्यों की दृष्टि से उक्त स्थिति वैनयिक मिथ्यात्व' ही कही जाएगी।४३ २. मण्डूकचूर्ण (भस्म) न्याय यह न्याय योगबिन्दु (पद्य सं. ४२३) में, तथा योगशतक (गाथा ८६) में प्रयुक्त हुआ है।४४ उक्त न्याय वर्षा ऋतु की घटना को इंगित करता है। मेंढ़क का शरीर टुकड़े-टुकड़े भी हो गया हो, तो भी वर्षा के जल में वे सभी टुकड़े मिल जाते हैं और मेंढ़क पुनर्जीवित हो जाता है। किन्तु मेंढ़क के शरीर को जला कर राख कर दिया जाये, तो उस राख पर कितना ही वर्षा का जल गिरे, मेंढ़क जीवित नहीं होता। उक्त न्याय के माध्यम से प्राचार्य यह समझाना चाहते हैं कि आन्तरिक पवित्रता के साथ किया गया तप मनोविकारों को भस्मीभूत कर देता है, इस प्रकार कर्मों व मनोविकारों के पुन: प्रादुर्भूत होने की सम्भावना समाप्त हो जाती है। किन्तु आन्तरिक भावना के बिना, मात्र शारीरिक काय-क्लेश रूपी तप से दोषों का सर्वथा क्षय नहीं होता, और वे अनुकूल परिस्थिति प्राप्त करते ही पुनः प्रादुर्भूत/विकसित हो सकते हैं। उक्त न्याय का निदर्शन जैनेतर परम्परा में भी हुआ है।४५ ३. शत्रुग्रह-नष्टाध्वभ्रष्ट-तज्ज्ञान-न्याय इस न्याय का प्रयोग 'उपदेशपद' (गाथा ८६१-६४) में किया गया है।४६ न्याय का स्वरूप इस प्रकार है । कोई व्यक्ति पटना की ओर चला। रास्ते में खतरनाक जंगल था, वहां डाकुओं शत्रों के चंगुल में फंस गया। उसका माल-प्रसवाब तो लुटा ही, रास्ते से भी भटक गया। ऐसी स्थिति में वह सही मार्ग किससे पूछे ? हो सकता है कि जिससे पूछे वह शत्रु-पक्ष का ही हो ।४७ इसलिए सोच-समझ कर ही किसी से मार्ग पूछना उचित होगा । उचित तो यह होगा कि बालक, वृद्ध, स्त्री या पशु चराने वाला-इनमें से कोई भी मिले तो उससे रास्ता पूछा जा सकता है, क्योंकि ये सभी प्रायः सत्यवादी होते हैं ।४८ इस न्याय के आधार पर प्राचार्य ने यह समझाने का प्रयास किया कि आगम के पद, वाक्य, महावाक्य इनके अर्थों को हृदयंगम कर, पदार्थों के वास्तविक स्वरूप को समझा जा सकता है। अन्य मत के उपदेशकों के वाग्जाल के कारण साधक या जिज्ञासु मार्गभ्रष्ट हो गया हो तो उसे चाहिए कि वह आगम के 'महावाक्यार्थ' (पूरे प्रकरण का पूर्वापर संगत अर्थ) पर ही अधिक भरोसा करे । पदार्थ व वाक्यार्थ पर अधिक विश्वास नहीं किया जाना चाहिए।४६ ४. प्रक्षालनाद्धि पंकस्य दूरादस्पर्शनं वरम् कीचड़ में पाँव लिप्त कर, फिर उसे धोने की अपेक्षा से तो यही उचित है कि कीचड़ में पांव दिया ही न जाये । यह लोक प्रचलित प्रसिद्ध न्यायोक्ति है। पूजा आदि का फल-मोक्ष न चाह कर राज्य-सम्पत्ति आदि लौकिक वैभव की इच्छा करना, और इसके समर्थन में यह कहना कि वैभव के परिग्रह से होने वाले पाप को, दान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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