Book Title: Gyanvad Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 2
________________ मायभव श्री 30 डॉ. t अभिनन्दन समान आमदन आचार्य प्रव श्री २७८ धर्म और दर्शन है और आत्मा है वह ज्ञान है।" भेददृष्टि से कथन करते हुए कहा-ज्ञान आत्मा का गुण है। भेदाभेद की दृष्टि से चिन्तन करने पर आत्मा ज्ञान से सर्वथा भिन्न भी नहीं है, अभिन्न भी नहीं है किंतु कथंचित् भिन्न है और कथंचित् अभिन्न है । " ज्ञान आत्मा ही है इसलिए वह आत्मा से अभिन्न है ज्ञान गुण है और आत्मा गुणी है, इस प्रकार गुण और गुणी के रूप में ये भिन्न भी है। ज्ञान उत्पन्न कैसे होता है ? ज्ञेय और ज्ञान दोनों स्वतन्त्र हैं । द्रव्य, गुण और पर्याय ये ज्ञेय हैं । ज्ञान आत्मा का गुण है । न तो ज्ञेय से ज्ञान उत्पन्न होता है और न ज्ञान से ज्ञेय उत्पन्न होता है। हमारा ज्ञान जाने या न जाने तथापि पदार्थ अपने रूप में अवस्थित है। हमारे ज्ञान की ही यदि वे उपज हों तो उनकी असत्ता में उन्हें जानने का हमारा प्रयास ही क्यों होगा ? अदृष्ट वस्तु की कल्पना ही नहीं कर सकते । पदार्थ ज्ञान के विषय हों या न हों तथापि हमारा ज्ञान हमारी आत्मा में अवस्थित है। हमारा ज्ञान यदि पदार्थ की ही उपज हो तो वह पदार्थ का ही धर्म होगा, उसके साथ हमारा तादात्म्य सम्बन्ध नहीं हो सकेगा । तात्पर्य यह है कि जब हम पदार्थ को जानते हैं तब ज्ञान उत्पन्न नहीं होता किन्तु उस समय उसका प्रयोग होता है जानने की क्षमता हमारे में रहती है, तथापि ज्ञान की आवृतदशा में हम पदार्थ को बिना माध्यम से जान नहीं सकते । हमारे शरीर, इन्द्रिय और मन चेतनायुक्त नहीं हैं, जब इनसे पदार्थ का सम्बन्ध होता है या सामीप्य होता है, तब वे हमारे ज्ञान को प्रवृत्त करते हैं और हम ज्ञेय को जान लेते हैं । या हमारे संस्कार किसी पदार्थ को जानने के लिए ज्ञान को उत्प्रेरित करते हैं तब वे जानते हैं। यह ज्ञान की प्रवृत्ति है, उत्पत्ति नहीं । विषय के सामने आने पर उसे ग्रहण कर लेना प्रवृत्ति है जिसमें जितनी ज्ञान की क्षमता होगी, वह उतना ही जानने में सफल हो सकेगा । इन्द्रिय और मन के माध्यम से ही हमारा ज्ञान शेव को जानता है। इन्द्रियों की शक्ति सीमित है, वे मन के साथ अपने-अपने विषयों को स्थापित कर ही जान सकती हैं। मन का सम्बन्ध एक समय में एक इन्द्रिय से ही होता है । एतदर्थ एक काल में एक पदार्थ की एक ही पर्याय जानी जा सकती है । । अतः ज्ञान को ज्ञेयाकार मानने की आवश्यकता नहीं यह सीमा आवृत ज्ञान के लिए है। अनावृत ज्ञान के लिए नहीं अनावृत ज्ञान में तो एक साथ सभी पदार्थ जाने जा सकते हैं । 1 ज्ञान और ज्ञेय का सम्बन्ध ज्ञान और ज्ञेय का विषय-विषयीभाव सम्बन्ध है । प्रमाता ज्ञान स्वभाव है इसलिए वह विषयी है । अर्थ ज्ञेय-स्वभाव है इसलिए वह विषय है। दोनों स्वतन्त्र हैं तथापि ज्ञान में अर्थ को जानने की और अर्थ में ज्ञान के द्वारा जाने जा सकने की क्षमता है। यही दोनों के कथंचित् अभेद का कारण है । १ (क) जे आया से विष्णाया, जे विण्णाया से आया । ( ख ) समयसार गाथा ७ (ग) गाणे पुर्ण नियमं आया- भगवती १२।१० २ ज्ञानाद भिन्नो न चामिन्नो भिन्नाभिन्नः कथंचन । ज्ञानं पूर्वापरीभूतं सोऽयमात्मेतिकीर्तितः ॥ Jain Education International 1 For Private & Personal Use Only --- आचारांग ५।५।१६६ -स्वरूपसम्वोधन - ४ www.jainelibrary.org

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