Book Title: Gita Darshan Part 02
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 7
________________ भूमिका स्वाध्याय के सूत्र ओशो निःसंदिग्ध रूप से वर्तमान युग के सर्वाधिक मौलिक दार्शनिक हैं। उनकी गहराई, चिंतन की पारदर्शिता, मौलिकता तथा बहुआयामी व्यक्तित्व से मैं अभिभूत हूं। इसीलिए श्रीमद्भगवद्गीता की उन्होंने जो एकमेवाद्वितीय व्याख्या की है उसे पढ़ना मेरे लिए एक उच्चतम अनुभव रहा है। मैं मानता हूं कि मनुष्य के इतिहास में इतना विद्वत्तापूर्ण ग्रंथ कभी नहीं लिखा गया होगा। गीता की कई टीकाएं उपलब्ध हैं। प्रत्येक टीका में टीकाकार कृष्ण के शब्दों को उस ढंग से प्रतिफलित करता है जैसी उसके देखने की क्षमता है, परिप्रेक्ष्य है। मेरे विचार में, यह गीता की टीका नहीं है। ओशो ने केवल कृष्ण के शब्दों में ठसाठस भरी हुई ऊर्जा को उस समय उघाड़ा जब संन्यासियों और प्रशंसकों के सम्मिश्र समूह के सामने उन्होंने गीता पर प्रवचन दिए। उन्होंने पूरी तटस्थता से कृष्ण के अंतरंग को प्रगट किया है। कभी-कभी मैं ओशो की तुलना कृष्ण से करता हूं। क्योंकि उन्होंने भी अपने जीवन-काल में समकालीन साधक को तीन प्रधान मार्ग बताए : कर्म, भक्ति और ज्ञान। कृष्ण ने जब अर्जुन को उसकी अस्थायी मूर्छा से जगाया तब उन्होंने भी अर्जुन के सामने यही विकल्प रखे। ओशो के कम्यून में आपको ऐसे साधक मिल जाते हैं जो उनकी समाधि के आगे बैठकर भक्ति रस में डूब जाते हैं। इसी कम्यून में कट्टर बुद्धिजीवी लोग ओशो के दैदीप्यमान प्रवचनों को सुनकर सम्मोहित हो जाते हैं। ___ मैंने ओशो से बहुत सी नई बातें सीखी हैं। यही वह कम्यून है जहां मैंने जाना कि वर्क मेडिटेशन, ध्यानपूर्ण काम जैसी कोई चीज होती है। मेरा मस्तिष्क स्वभाव से तर्कनिष्ठ है, लेकिन भीतर कहीं उसे धर्म की खोज भी है। इस द्वंद्व में आंदोलित मेरे मन को ओशो के प्रवचनों में पहली बार पता चला कि धार्मिकता संगठित धर्म से सर्वथा भिन्न तत्व है। ओशो के प्रवचन ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे पर्वत श्रेणियों से कलकल बहते हुए झरने—अत्यंत निर्मल, प्रकाशमान और अविराम रूप से प्रवाहमान। भगवद्गीता के उक्त प्रवचन दो दशक पहले विशुद्ध और काव्यात्मक हिंदी में दिए गए हैं। यह गीता के वचनों की महज व्याख्या नहीं है वरन इन प्रवचनों में ओशो ने कतिपय नई संकल्पनाओं को पिरोया है। इनमें से कुछ संकल्पनाएं उद्धृत करने का मोह मैं संवरण नहीं कर पा रहा हूं। परंपरा—ओशो कहते हैं, “परंपरा का अर्थ ट्रेडीशन नहीं। परंपरा का अर्थ है-संतति, प्रवाह, कंटिन्युइटि।" योग-ओशो कहते हैं, “योग यानी अनुभूति की प्रक्रिया। सत्य है अनुभूति, सत्य है दर्शन; योग है द्वार।" वीतराग— “वीतराग का अर्थ है," ओशो कहते हैं, "बियांड अटैचमेंट; डिटैचमेंट नहीं। वीतराग का अर्थ है, आसक्ति के पार; विरक्त नहीं। विरक्त, विपरीत आसक्ति में होता है, पार नहीं होता।" न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा-कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिए मुझे कर्म लिपायमान नहीं करते। गीता के इस महान वचन की व्याख्या में ओशो कहते हैं, “फल कभी आज नहीं है। फल आज हो नहीं सकता। आज तो कर्म ही हो सकता है; फल तो कल ही होगा। कल आ भी जाएगा, तब भी फल अगले कल पर सरक जाएगा। कल फिर जब आज बनेगा, तो कर्म ही होगा। ___ “आज सदा कर्म है; फल सदा कल है। आज वर्तमान; कल भविष्य। फल सदा कल्पना में है। फल का अस्तित्व नहीं है; अस्तित्व तो कर्म का है। परमात्मा भविष्य में नहीं जीता, क्योंकि परमात्मा कल्पना में नहीं जीता...।

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