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| गीता दर्शन भाग-2017
कहां है? वह तो प्रतिपल बुझती गई और धुआं होती गई और नई ज्योति आती गई। जिस ज्योति को आपने जलाया था सांझ, वह ज्योति तो हर पल बुझती गई और धुआं होती गई, और नई ज्योति उसकी जगह रिप्लेस होती गई। वह ज्योति तो छलांग लगाकर शून्य में खोती गई, और नई ज्योति का आविर्भाव होता गया। जिस ज्योति को सुबह आप बुझाते हैं, यह वही ज्योति है, जिसको सांझ आपने
जलाया था ?
यह वही ज्योति तो नहीं है। वह तो कई बार बुझ गई। लेकिन फिर भी यह दूसरी ज्योति भी नहीं है, जिसको आपने नहीं जलाया था। परंपरा से यह वही ज्योति है । यह उसी ज्योति का सिलसिला है; यह उसी ज्योति की परंपरा है; यह उसी ज्योति की संतति है।
आप आज हैं; कल आप नहीं थे, लेकिन आपके पिता थे। परसों आपके पिता भी नहीं थे, उनके पिता थे। कल आप भी नहीं होंगे, आपका बेटा होगा। परसों बेटा भी नहीं होगा, उसका बेटा होगा। ठीक से समझें, तो जैसे ज्योति जली और बुझी, ठीक ऐसे ही व्यक्ति जलते और बुझते हैं, लेकिन फिर भी एक परंपरा है।
मां और बाप अपने बेटे को ज्योति दे जाते हैं। ज्योति जलती है, फिर नई संतति । अगर हम ठीक से देखें, तो आप हो नहीं सकते थे, अगर हजारों-लाखों वर्ष पहले एक व्यक्ति भी आपकी परंपरा में न हुआ होता। अगर लाखों वर्ष पहले एक व्यक्ति जो आपकी पिता की पीढ़ियों में रहा हो, न होता, तो आप कभी न हो सकते थे। वह गंगोत्री अगर वहां न होती, तो आज आप न होते। आप उसी धारा के सिलसिले हैं, शरीर की दृष्टि से आप उसी के सिलसिले हैं।
और आत्मा की दृष्टि से भी आप सिलसिला हैं, एक परंपरा हैं। यह आत्मा कल भी थी, परसों भी थी- किसी और देह में, किसी और देह में। अरबों-खरबों वर्षों में इस आत्मा की भी एक परंपरा है; शरीर की भी एक परंपरा है। परंपरा का अर्थ है, संतति प्रवाह, कंटिन्युटी |
वैज्ञानिक एक शब्द का प्रयोग करते हैं, कंटीनम । अगर ठीक करीब लाना चाहें, तो परंपरा का अर्थ होगा, कंटीनम - संतति प्रवाह, सिलसिला ।
कृष्ण कह रहे हैं, परंपरा से इसी सत्य को ऋषियों ने एक-दूसरे से कहा ।
इसमें दूसरी बात भी ध्यान रखें। जोर कहने पर है; जोर सुनने पर नहीं है। इसमें कृष्ण कह रहे हैं, परंपरा से ऋषियों ने कहा। कृष्ण यह भी नहीं कह रहे कि परंपरा से ऋषियों ने सुना । जब भी कहा
| गया होगा, तो सुना तो गया ही होगा, लेकिन जोर कहने पर है। | कहने वाले का अनिवार्य रूप से ऋषि होना जरूरी है; सुनने वाले का ऋषि होना जरूरी नहीं है। जिसने सुना, उसने समझा हो, जरूरी | नहीं है। लेकिन जिसने कहा, उसने न समझा हो, तो कहना व्यर्थ है, कहा नहीं जा सकता।
यह भी ध्यान देने योग्य कि कृष्ण कहते हैं कि ऋषियों ने परंपरा से इस सत्य को कहा, परंपरा से पाया नहीं। किसी ने उनसे कहा हो और उनको मिल गया हो, ऐसा नहीं जाना होगा। जानना और बात है, सुन लेना और बात है।
इसलिए हम पुराने शास्त्रों को कहते हैं, श्रुति, सुने गए। या कहते हैं, स्मृति, मेमोराइज्ड, स्मरण किए गए। ध्यान रहे, शास्त्र जानने वालों ने नहीं लिखे, सुनने वालों ने लिखे हैं।
इस पृथ्वी का कोई भी महत्वपूर्ण शास्त्र लिखा नहीं गया है। सुना गया है और लिखा गया है। गीता भी सुनी गई और लिखी गई । जिसने लिखी, जरूरी नहीं कि वह जानता हो। बाइबिल लिखी गई, कुरान लिखा गया, वेद लिखे गए, महावीर - बुद्ध के वचन लिखे गए। महावीर और बुद्ध ने लिखे नहीं हैं, कहे। जिन्होंने लिखे, | उनके लिए वह ज्ञान नहीं था, श्रुति थी। उसे उन्होंने सुना था, उसे | उन्होंने स्मरण किया था, उसे उन्होंने लिखा था; संजोया, सम्हाला । | कहना चाहिए, शास्त्र एक अर्थ में डेड प्रोडक्ट है। कहना चाहिए, मरे हुए का संग्रह है । जिन्होंने कहा, उन्होंने परंपरा से जाना।
परंपरा से जानने के दो अर्थ हो सकते हैं । एक अर्थ, जैसा साधारणतः लिया जाता है, जिससे मैं राजी नहीं हूं। एक अर्थ तो यह लिया जाता है कि हम शास्त्र पढ़ लें और जान तो जो हमने जाना, वह हमने परंपरा से जाना। नहीं; वह हमने परंपरा से नहीं जाना। वह हमने केवल रूढ़ि से जाना, रीति से जाना, व्यवस्था से जाना । और उस तरह का जानना ज्ञान नहीं बन सकता। सिर्फ | इन्फर्मेशन ही होगा; नालेज नहीं बन सकता। उस तरह का जानना मात्र सूचना का संग्रह होगा, ज्ञान नहीं ।
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शास्त्र पढ़कर कोई सत्य को नहीं जान सकता है। हां, सत्य को | जान ले तो शास्त्र में पहचान सकता है, रिकग्नाइज कर सकता है। | शास्त्र पढ़कर ही कोई सत्य को जान ले, तो सत्य बड़ी सस्ती बात | हो जाएगी। फिर तो शास्त्र की जितनी कीमत है, उतनी ही कीमत सत्य की भी हो जाएगी। शास्त्र पढ़कर सत्य जाना नहीं जा सकता, सिर्फ पहचाना जा सकता है।
लेकिन पहचान तो वही सकता है, जिसने जान लिया हो,