Book Title: Gita Darshan Part 02
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 13
________________ मैत्री - छिछली / वर्ण-व्यवस्था की वापसी / वर्ण में ऊंचे-नीचे की भावना लाना गलत / अपनी-अपनी आंतरिक सहजता / अपने-अपने ढंग से सभी को परमात्म-उपलब्धि संभव / नकली ब्राह्मण आज भयभीत है / दूसरे से स्पर्धा नहीं - अपने गुण-कर्म से अनुकूलता / आज शूद्र होने की कुछ सुविधाएं / बच्चे के गुण-धर्म व रुझान का निश्चय अत्यंत महत्वपूर्ण / आज कौन किस वर्ण में है ? / राजनेता वर्णसंकर है / इंजीनियर, टेक्नीशियन, शिल्पी - सब शूद्र वर्ण वाले / मानसिक रूप से शोध करने वाले गणितज्ञ, वैज्ञानिक — ब्राह्मण वर्ण में / चीरा - फाड़ी और मलहम पट्टी करने वाला डाक्टर शूद्र है / केवल दवाई बेचने वाला डाक्टर वैश्य है / परमाणु-शक्ति का खोजी - क्षत्रिय / परमाणु शक्ति में जीवन - रहस्य का खोजी - ब्राह्मण / राजनीतिज्ञ होना कोई धंधा नहीं है / राजनीति का शुद्ध विचारक - ब्राह्मण / निषिद्ध कर्म की पहचान – गहन और गूढ़ / शास्त्र सरल हैं - जिंदगी जटिल / जिंदगी है — अनिश्चित — और बेबूझ / जैनी खेती-बाड़ी से बचे, तो धन का शोषण करने लगे / कर्म की गति गहन है / कर्म में अकर्म को देखना अर्थात अकर्ता-भाव / साक्षी से अकर्ता-भाव / करते हुए अकर्ता रहना / सर्व से एकात्मता / साक्षी है आंख । 7 कामना - शून्य चेतना पांडित्य - अनुभवशून्य या अनुभवसिक्त / कामना अर्थात भविष्य में सुख की आशा / दुखों की गठरी / कामना और आत्म- अज्ञान परस्पर आश्रित हैं / पहले कामना छूटे - फिर संकल्प भी छूटे / कामना और संकल्प से रिक्त चित्त दर्पण बन जाता है / विराट का प्रतिफलन / ज्ञानी स्वयं प्रमाण है / सकारण सुख - सांसारिक / अकारण सुख-आत्मिक / संसार - आश्रित सुख - क्षणभंगुर / पराश्रय और स्वआश्रय / कर्तापन से अभिमान / अभिमान -केंद्रित होता है / करते हुए भी अकर्ता होना / वर्तमान क्षण में पूरे-पूरे मौजूद / शरीर की यांत्रिक आदतें / असम्यक बांधता है - सम्यक मुक्त करता है / होश से सम्यक कर्म का जन्म / सहजस्फूर्त जीवन / मूर्च्छा में अति घटित / शरीर यांत्रिक है, तो उसकी अपनी प्रज्ञा (बॉडी विसडम) कैसे होती है ? / यांत्रिक बुद्धिमत्ता / शरीर की स्वचलित प्रक्रियाएं / शारीरिक क्रियाओं के प्रति होश / अनावश्यक सुख-सामग्री का बोझ / दिखावा / सामग्री से सुविधा मिलती है - सुख नहीं / सुख - वस्तुओं में नहीं — स्वयं में है / आत्म- जयी सुखी / स्वयं को पाकर सब पाया। ... 95 8 मैं मिटा, तो ब्रह्म... 111 जो मिले उसमें संतोष / चित्त अर्थात असंतोष / भ्रम - भविष्य में संतोष का / जितनी बड़ी अपेक्षा - उतना बड़ा संतोष / असंतोष का स्वर्ग / हम द्वंद्व में ही जीते हैं—खंडों में टूटा हुआ आदमी / मित्रता- शत्रुता, प्रशंसा - निंदा / मन विपरीत से परिपूर्ति करता हैं / चित्त अनिवार्यतया द्वंद्वात्मक है / द्वंद्वों के पार - तीसरा - साक्षी / संतोषी और निर्द्वद्व व्यक्ति को कर्म नहीं बांधते / 'मेरा' बंधन है / 'मेरे' का विस्तार / मेरे का तेल और मैं की ज्योति / आसक्तिरहित कर्म यज्ञ बन जाता है / अहंकार अंधापन है / अहं विसर्जन से ब्रह्म का अनुभव / मैं का घड़ा फूटे / अस्तित्व ही ब्रह्म है / 'मैं' की पारदर्शी दीवाल / मैं मिटा - तो सब ब्रह्म / दो की भ्रांति / एक का ही विस्तार है / भीतर एक – तो बाहर एक / समाधि अर्थात समाधान / अनंत के साथ एक रसता ।

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