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मैंने आपमें एक अजीब बातदेवी सेठजी! दस लाव की हानि में आपने तनिक विषाद नहीं किया और पन्द्रह लारव के लाभ मेंमानों कुछ हुआ
ही नहीं।
भैया, तो तुम देखकर भी नहीं समझे। में कुछ करने वाला हूँ ही नहीं |जो होना होता है होता है।वस्तुका परिणमन उसके उपादान से स्वयं ही होता है। पर पदार्थ उसमें निमित्त तो होता है परन्तु
कर कुछ नहीं सकता
यह तो ठीक है सेठजी! परन्तु नुकसान में रोना आताही है और जब लाभ होता है, खुशी होती
भैया कैलाश, यही तो भ्रम है। वस्तु का परिणमन जब स्वयं होता है, उसमें जब मैं कुछ कर ही नहीं सकता, तो फिर उसके अनुकूल व प्रतिकूल परिणमन में सुख दुख क्या? दूसरे के निमित्त से होने वाले राग, द्वेष परिणाम भी आत्मा के नहीं है इस प्रकार का श्रद्धानकरके उन परकृत परिणामों को यदिदर कर दे तो अपने सहजआनन्द-स्वरूप निज स्वभाव में ही बने रहें और शांति ही
शांति
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