Book Title: Drusthant Katha
Author(s): Shrimad Rajchandra, Hansraj Jain
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 12
________________ नमिराजर्षि और शकेंद्रका सवाद विशेष दुःख-समूहको प्राप्त न होते हुए भी एकत्वके स्वरूपको परिपूर्ण पहचाननेमें राजेश्वरने किंचित् विभ्रम किया नहीं है। शकेंद्र पहले जहाँ नमिराजर्षि निवृत्तिमें विराजते हैं, वहाँ विप्ररूपमें आकर परीक्षा हेतुसे अपना व्याख्यान शुरू करता है : विप्र-हे राजन् ! मिथिला नगरीमें आज प्रबल कोलाहल व्याप्त हो रहा है। हृदय एवं मनको उद्वेग करनेवाले विलापके शब्दोंसे राजमंदिर और सामान्य घर छाये हुए हैं। मात्र तेरी दीक्षा ही इन सब दु:खोंका हेतु है। परके आत्माको जो दु:ख अपनेसे होता है उस दुःखको संसारपरिभ्रमणका कारण मानकर तू वहाँ जा, भोला न बन । नमिराज-(गौरवभरे वचनोंसे) हे विप्र! तू जो कहता है वह मात्र अज्ञानरूप है। मिथिला नगरीमें एक बगीचा था, उसके मध्यमें एक वृक्ष था, शीतल छायाके कारण वह रमणीय था, पत्र, पुष्प और फलसे वह युक्त था; नाना प्रकारके पक्षियोंको वह लाभदायक था; वायु द्वारा कंपित होनेसे उस वृक्षमें रहनेवाले पक्षी दुःखार्त एवं शरणरहित हो जानेसे आक्रंद करते हैं। वे स्वयं वृक्षके लिए विलाप करते नहीं हैं; अपना सुख नष्ट हो गया, इसलिए वे शोकार्त हैं। विप्र-परन्तु यह देख! अग्नि और वायुके मिश्रणसे तेरा नगर, तेरे अन्तःपुर और मन्दिर जल रहे हैं, इसलिए वहाँ जा और उस अग्निको शांत कर। नमिराज हे विप्र! मिथिला नगरी, उन अन्तःपुरों और उन मन्दिरोंके जलनेसे मेरा कुछ भी नहीं जलता है; जैसे सुखोत्पत्ति है वैसे मैं वर्तन करता हूँ। उन मंदिर आदिमें मेरा अल्पमात्र भी नहीं है। मैंने पुत्र, स्त्री आदिके व्यवहारको छोड दिया है। मुझे इनमेंसे कुछ प्रिय नहीं है और अप्रिय भी नहीं है। विप्र-परन्तु हे राजन् ! तू अपनी नगरीके लिए सघन किला बनाकर, सिंहद्वार, कोठे, किवाड और भुंगाल बनाकर और शतघ्नी खाई बनवानेके बाद जाना। नमिराज-हेतु-कारण-प्रे०१) हे विप्र! मैं शुद्ध श्रद्धारूपी नगरी बनाकर, संवररूपी भुंगाल बनाकर, क्षमारूपी शुभ गढ बनाऊँगा; शुभ मनोयोगरूपी कोठे बनाऊँगा, वचनयोगरूपी खाई बनाऊँगा, कायायोगरूपी शतघ्नी बनाऊँगा, पराक्रमरूपी धनुष करूँगा, ईर्यासमितिरूपी पनच करूँगा, धीरतारूपी कमान पकडनेकी मूठ करूँगा, सत्यरूपी चापसे धनुष्को बाँधूंगा, तपरूपी बाण करूँगा और कर्मरूपी वैरीकी सेनाका भेदन करूँगा। लौकिक संग्रामकी मुझे रुचि नहीं है। मैं मात्र वैसे भावसंग्रामको चाहता हूँ। विप्र-(हेतु-कारण-प्रे०) हे राजन् ! शिखरबंध ऊँचे आवास करवाकर, मणिकंचनमय गवाक्षादि रखवाकर और तालाबमें क्रीडा करनेके मनोहर महालय बनवाकर फिर जाना। नमिराज-(हेतु-कारण-प्रे०) तूने जिस जिस प्रकारके आवास गिनाये हैं उस उस प्रकारके आवास मुझे अस्थिर एवं अशाश्वत मालूम होते हैं। वे मार्गके घररूप लगते हैं। इसलिए जहाँ स्वधाम है, जहाँ शाश्वतता है, और जहाँ स्थिरता है वहाँ मैं निवास करना चाहता हूँ। विप्र—(हेतु-कारण-प्रे०) हे क्षत्रियशिरोमणि! अनेक प्रकारके तस्करोंके उपद्रवको दूर करके, और इस तरह नगरीका कल्याण करके तू जाना। १. हेतु और कारणसे प्रेरित ।

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