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मोक्षमाला - शिक्षापाठ ४८. कपिलमुनि - भाग ३
हास्य-विनोदरूपमें परिणत हुआ; यों होते होते दोनों प्रेमपाशमें बँध गये। कपिल उससे लुभाया ! एकांत बहुत अनिष्ट वस्तु है !!
वह विद्या प्राप्त करना भूल गया। गृहस्थकी ओरसे मिलनेवाले सीधेसे दोनोंका मुश्किलसे निर्वाह होता था; परंतु कपडे-लत्तेकी तकलीफ हुई। कपिलने गृहस्थाश्रम बसा लेने जैसा कर डाला । चाहे जैसा होनेपर भी लघुकर्मी जीव होनेसे उसे संसारके प्रपंचकी विशेष जानकारी भी नहीं थी। इसलिये वह बेचारा यह जानता भी न था कि पैसा कैसे पैदा किया जाय । चंचल स्त्रीने उसे रास्ता बताया कि व्याकुल होनेसे कुछ नहीं होगा; परंतु उपायसे सिद्धि है। इस गाँवके राजाका ऐसा नियम है कि सबेरे पहले जाकर जो ब्राह्मण आशीर्वाद दे उसे वह दो माशा सोना देता है। वहाँ यदि जा सको और प्रथम आशीर्वाद दे सको तो वह दो माशा सोना मिलेगा। कपिलने यह बात मान ली। आठ दिन तक धक्के खाये परंतु समय बीत जानेके बाद पहुँचनेसे कुछ हाथ नहीं आता था। इसलिये उसने एक दिन निश्चय किया कि यदि मैं चौकमें सोऊँ तो सावधानी रखकर उठा जायगा। फिर वह चौकमें सोया। आधी रात बीतनेपर चंद्रका उदय हुआ। कपिल प्रभात समीप समझकर मुट्ठियाँ बाँधकर आशीर्वाद देनेके लिये दौडते हुए जाने लगा। रक्षपालने उसे चोर जानकर पकड लिया । लेनेके देने पड गये। प्रभात होने पर रक्षपालने उसे ले जाकर राजाके समक्ष खडा किया। कपिल बेसुध-सा खडा रहा; राजाको उसमें चोरके लक्षण दिखाई नहीं दिये। इसलिये उससे सारा वृत्तांत पूछा। चंद्रके प्रकाशको सूर्यके समान माननेवालेकी भद्रिकतापर राजाको दया आयी। उसकी दरिद्रता दूर करनेकी राजाकी इच्छा हुई, इसलिये कपिलसे कहा, "आशीर्वाद देनेके लिये यदि तुझे इतनी झंझट खडी हो गई है तो अब तू यथेष्ट माँग ले; मैं तुझे दूँगा।" कपिल थोडी देर मूढ जैसा रहा। इससे राजाने कहा, "क्यों विप्र ! कुछ माँगते नहीं हो?" कपिलने उत्तर दिया, "मेरा मन अभी स्थिर नहीं हुआ है; इसलिये क्या माँD यह नहीं सूझता।" राजाने सामनेके बागमें जाकर वहाँ बैठकर स्वस्थतापूर्वक विचार करके कपिलको माँगनेके लिये कहा। इसलिये कपिल उस बागमें जाकर विचार करने बैठा।
शिक्षापाठ ४८ : कपिलमुनि-भाग ३ दो माशा सोना लेनेकी जिसकी इच्छा थी, वह कपिल अब तृष्णातरंगमें बहने लगा। पाँच मुहरें माँगनेकी इच्छा की, तो वहाँ विचार आया कि पाँचसे कुछ पूरा होनेवाला नहीं है। इसलिये पच्चीस मुहरे माँD। यह विचार भी बदला । पच्चीस मुहरोंसे कहीं सारा वर्ष नहीं निकलेगा; इसलिये सौ मुहरें माँग लूँ। वहाँ फिर विचार बदला। सौ मुहरोंसे दो वर्ष कट जायेंगे, वैभव भोगकर फिर दुःखका दु:ख, इसलिये एक हजार मुहरोंकी याचना करना ठीक है; परंतु एक हजार मुहरोंसे, बाल-बच्चोंके दो चार खर्च आ जाय, या ऐसा कुछ हो तो पूरा भी क्या हों? इसलिये दस हजार मुहरें माँग लूँ कि जिससे जीवनपर्यन्त भी चिन्ता न रहे। वहाँ फिर इच्छा बदली। दस हजार मुहरें खत्म हो जायेगी तो फिर पूँजीहीन होकर रहना पडेगा । इसलिये एक लाख मुहरोंकी माँग करूँ कि जिसके ब्याजमें सारा वैभव भोगूं; परंतु जीव ! लक्षाधिपति तो
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