Book Title: Drusthant Katha
Author(s): Shrimad Rajchandra, Hansraj Jain
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 31
________________ भावनाबोध-निवृत्तिबोध परंतु चारित्रमें रोगोत्पत्तिके समय चिकित्सा कौन करेगा? दुःख-निवृत्ति कौन करेगा? इसके बिना अति दुष्कर है।" मृगापुत्रने कहा-“यह ठीक है, परंतु आप विचार कीजिये कि अटवीमें मृग तथा पक्षी अकेले होते हैं; उन्हें रोग उत्पन्न होता है तब उनकी चिकित्सा कौन करता है ? जैसे वनमें मृग विहार करता है वैसे ही मैं चारित्रवनमें विहार करूँगा, और सत्रह प्रकारके शुद्ध संयमका अनुरागी बनूँगा; बारह प्रकारके तपका आचरण करूँगा तथा मृगचर्यासे विचरूँगा। जब मृगको वनमें रोगका उपद्रव होता है, तब उसकी चिकित्सा कौन करता है ?" ऐसा कहकर वे पुनः बोले, "कौन उस मृगको औषध देता है ? कौन उस मृगको आनन्द, शांति और सुख पूछता है ? कौन उस मृगको आहार, जल लाकर देता है ? जैसे वह मृग उपद्रवमुक्त होनेके बाद गहन वनमें जहाँ सरोवर होता है वहाँ जाता है, तृण-पानी आदिका सेवन करके फिर जैसे वह मृग विचरता है वैसे ही मैं विचरूँगा । सारांश यह कि मैं तद्रूप मृगचर्याका आचरण करूँगा। इस तरह मैं भी मृगकी भाँति संयमवान् बनूँगा। अनेक स्थलोंमें विचरता हुआ यति मृगकी भाँति अप्रतिबद्ध रहे । मृगकी तरह विचरण करके, मृगचर्याका सेवन करके और सावद्यको दूर करके यति विचरे । जैसे मृग तृण, जल आदिकी गोचरी करता है वैसे ही यति गोचरी करके संयम-भारका निर्वाह करे। दुराहारके लिए गृहस्थकी अवहेलना न करे, निंदा न करे, ऐसे संयमका मैं आचरण करूँगा।" "एवं पुत्ता जहासुखं-हे पुत्र ! जैसे तुम्हें सुख हो वैसे करो!" इस प्रकार मातापिताने अनुज्ञा दी। अनुज्ञा मिलनेके बाद ममत्वभावका छेदन करके जैसे महा नाग कंचुकका त्याग करके चला जाता है वैसे ही वे मृगापुत्र संसारका त्याग कर संयम-धर्ममें सावधान हुए। कंचन, कामिनी, मित्र, पुत्र, जाति और सगे संबंधियोंके परित्यागी हुए। जैसे वस्त्रको झटककर धूलको झाड डालते हैं वैसे ही वे सब प्रपंचका त्याग कर दीक्षा लेनेके लिए निकल पडे । वे पवित्र पाँच महाव्रतसे युक्त हुए, पंच समितिसे सुशोभित हुए, त्रिगुप्तिसे अनुगुप्त हुए, बाह्याभ्यंतर द्वादश तपसे संयुक्त हुए, ममत्वरहित हुए, निरहंकारी हुए। स्त्री आदिके संगसे रहित हुए, और सभी प्राणियोंमें उनका समभाव हुआ। आहार जल प्राप्त हो या न हो, सुख प्राप्त हो या दुःख, जीवन हो या मरण, कोई स्तुति करे या कोई निंदा करे, कोई मान दे या कोई अपमान करे, उन सब पर वे समभावी हुए। ऋद्धि, रस और सुख इस त्रिगारवके अहंपदसे वे विरक्त हुए। मनदंड, वचनदंड और तनदंडको दूर किया। चार कषायसे विमुक्त हुए। मायाशल्य, निदानशल्य तथा मिथ्यात्वशल्य इस त्रिशल्यसे विरागी हुए। सप्त महाभयसे वे अभय हुए। हास्य और शोकसे निवृत्त हुए। निदानरहित हुए। रागद्वेषरूपी बन्धनसे छूट गये। वांछारहित हुए। सभी प्रकारके विलासोंसे रहित हुए। कोई तलवारसे काटे और कोई चन्दनका विलेपन करे, उसपर समभावी हुए। उन्होंने पाप आनेके सभी द्वार रोक दिये। शुद्ध अन्तःकरणसहित धर्मध्यानादिके व्यापारमें वे प्रशस्त हुए। जिनेन्द्रके शासनतत्त्वमें परायण हुए। ज्ञानसे, आत्म-चारित्रसे, सम्यक्त्वसे, तपसे, प्रत्येक महाव्रतकी पाँच भावनाओंसे अर्थात पाँच महाव्रतोंकी पच्चीस भावनाओंसे और निर्मलतासे वे अनुपम विभूषित हुए । सम्यक् प्रकारसे बहुत वर्ष तक आत्मचारित्रका परिसेवन करके एक मासका अनशन करके २८

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