Book Title: Dhyan Sadhna Paddhati Author(s): Ratanmuni Publisher: Z_Lekhendrashekharvijayji_Abhinandan_Granth_012037.pdf View full book textPage 1
________________ आरोग्य एवं शान्तिदायिनी ध्यान-साधना पद्धति - श्री रतन मुनि आज हम साधना के क्षेत्र में प्रवेश कर रहे हैं। पहले यह समझ लें कि साधना क्या है, इसका लक्ष्य और उद्देश्य क्या है? इसके बाद मैं आपको साधना की विधि बताऊँगा।' साधना है क्रमिक उन्नति; अपने साध्य की ओर बढ़ना। जब यह उन्नति अपनी चरम सीमा तक पहुँच जाती है तो साधना स्वयं ही सिद्धि बन जाती है। सिद्धि का अभिप्राय है - लक्ष्य में सफलता तथा आनन्द की उपलब्धि। आनन्द भौतिक नहीं अपितु आत्मिक! स्व-यानी आत्मा के आनन्द की अनुभूति-स्वानन्दानुभूति-उसका अनुभव। आत्मा स्वयं आनन्द-धन है, उस आनन्द की अनुभूति या उसका रसास्वादन, उसमें लीनता, तल्लीनता, डूब जाना, विभोर हो जाना ही स्वानन्दानुभूति है, स्वात्मानुभाव हैं, आत्मिक आनन्द रूपी अमृत का पान करना है। यह जिस विधि से प्राप्त होता है, उसी को साधना कहा गया है। यह साधना ध्यान रूप है, ध्यान-साधना ही आत्मारूपी अमृत घट को उद्घाटित करने का और इस अमृतानन्द को प्राप्त करने का एक मात्र उपाय है, मार्ग है, पद्धति है। इस ध्यान पद्धति को आपको समझना ___मैं इसे चार चरणों में विभाजित करके आप सबके समक्ष रखूगा, जिससे आप इस ध्यान पद्धति को सरलता से हृदयंगम कर सकें और इसके प्रयोग से अपने लक्ष्य तक पहुँच सकें, स्वात्मा के आनन्द की रसानुभूति कर सकें। प्रथम चरण प्रथम चरण को हम नवकार मन्त्र से प्रारम्भ कर रहे हैं, उसके पश्चात् वीर-वन्दन, गुरू-वन्दन सूत्र का उच्चारण करेंगे और फिर मैं आपको कुछ ऐसे हल्के आसनों के बारे में बताऊँगा, जिससे आप अपनी काया को स्थिर करके ध्यान की पूर्वभूमिका तैयार कर लें। क्योंकि काया काय-योग की स्थिरता के अभाव में ध्यान एकाग्र नहीं हो पाता, वचनयोग और मन भी चंचल बना रहता है, इधर-उधर घूमता रहता है। जब कि ध्यान के लिये मन का स्थिर होना अति आवश्यक है। __ मन स्थिर हुए बिना ध्यान में आनन्द नहीं आ सकता। ध्यान का लक्षण ही यह दिया है एकाग्रचिन्तानिरोधी ध्यानम्। चित्त अथवा मन को एक ध्येय पर स्थिर करना ही ध्यान है। जिस प्रकार वायुरहित स्थान में दीपक की लौ स्थिर हो जाती हैं, तनिक भी कॉपती नहीं, उसी प्रकार जब मन अपने ध्येय पर स्थिर हो जाता है, तभी ध्यान स्थिति बनती है। लेकिन आप तो जानते ही हैं कि मन महाबली और वायु से भी अधिक वेग वाला हैं, इसको वश में करना, एक ध्येय पर स्थिर करना बड़ा ही कठिन कार्य है। गीता में अर्जुन ने भी श्रीकृष्ण के समक्ष यही प्रश्न किया और उत्तराध्ययनसूत्र में भी केशीस्वामी ने भी यही जिज्ञासा रखी हैं। श्रीकृष्ण ने मन को वश में करने का उपाय अभ्यास और वैराग्य बताया है तथा गौतम ३२८ महापुरुषों की प्रभावी रुप में मात्र उनकी चरण रज भी घर में पड जाय तो दैन्यता नष्ट हो जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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