________________ भी कहा जाता है। इसी आत्मिक आनन्द की अनुभूति करना, अनुभव में लाना, इस लाना इस सुख का रसास्वादन करना स्वानन्दानुभति है। में विश्वास के साथ कहाता हूँ कि उपरिवर्णित ध्यान पद्धति की साधनास करके आप अवश्य ही उस आत्मिक आनन्द का अनुभव करेंगे, जो अलौकिक है, अचिन्त्य है, अनुपम है, जिसकी तुलना में संसार का बड़े से बड़ा सुख भी किसी गिनती में नहीं है। मेरी भावना है-आप इसी स्वानन्दानुभूति में निमग्न हों। * मोह और प्रेम में बड़ा फर्क है। मोह किसी क्षण टूट सकता है पलट सकता हैं अथवा ठीक विपरीत दिशा में भी दौड़ सकता हैं। मोह की चमक-दमक मात्र स्वार्थ या तृप्ति पूर्ण होने तक ही होती है। जबकि प्रेम में किंचित भी परिवर्तन नही होता। इसमे कुछ भी प्राप्त करने का भाव नही हैं, मात्र देने की इच्छा होती है। प्रेम तो देता हैं, देता रहता है आजीवन देता रहता/प्रेम में लूट-खसोट नहीं। मानव जब परास्त होता है, हारता है, तब भी अपना दोष देखने जितना निर्मल-पवित्र नहीं बन सकता। 351 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org