Book Title: Dhyan Sadhna Paddhati Author(s): Ratanmuni Publisher: Z_Lekhendrashekharvijayji_Abhinandan_Granth_012037.pdf View full book textPage 8
________________ भावना में बहुत शक्ति होती है। विष भी भावनाओं द्वारा अमृत रसायन - आरोग्य वर्धक बन जाता है। आचार्य सिद्धसेन का कथन है - पानीयमप्यमृतमित्यनुचिन्त्यमानं किं नाम नो विष विकारमपाकरोति अभिमंत्रित पानी को अमृत मानकर सेवन करने पर क्या विष बाधा दूर नहीं होती ? • यह सत्य है- यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी । जैसी भावना होती है, वैसी ही सिद्धि होती है। आप भी भवानाओं द्वारा मन, काया, श्वास आदि को शिथिल कर सकते हैं। मन, शास, शरीर आदि की शिथिलता होने पर आप अन्तर्यात्रा कर सकते हैं। चतुर्थ चरण अब मैं आपको अन्तरयात्रा की ओर ले चलता हूँ। अन्तरयात्रा का अभिप्राय है भीतर जाना। भीतर का चैतन्य केन्द्रो को प्राणशक्ति से जागृत करना। हम बाह्य संसार से बहुत परिचित हैं। हमारे मन और इन्द्रियों की स्थिति ही ऐसी है कि उनकी संपूर्ण गति बाहर की ओर बाह्य पदार्थों की ओर ही हो रही हैं। हम अपने शरीर के भी बाह्य भाग को ही देखते है। हमारे शरीर के अन्दर क्या हो रहा हैं, इसकी ओर हमने लक्ष्य ही नहीं दिया, कभी जानने की चेष्टा ही नहीं की । सबसे पहले मैं यह बताना चाहूँगा कि अभिप्राय है शरीर के अन्दर अवस्थित हमारा शरीर एक संपूर्ण लोक हैं, इसमें आत्मा का निवास है। इस औदारिक शरीर के अन्दर एक सूक्ष्म शरीर है। शास्त्र इसे तेजस शरीर कहते हैं और वैज्ञानिक विद्युन्मय शरीर इस तेजस शरीर में हमारी चैतन्य धारा प्रवाहित हो रही है। यद्यपि संपूर्ण शरीर में ही चेतना का निवास हैं, किन्तु कुछ विशेष केन्द्र ऐसे हैं, जिनमें चैतन्य शक्ति का प्रवाह अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक है। इन विशिष्ट क्षेत्रों अथवा केन्द्रों को योग की भाषा में 'चैतन्य केन्द्र' अथवा 'चक्र' कहा गया है। चक्र कहने का कारण यह है कि इन विशिष्ट केन्द्रों पर तेजस शरीर के ( और औदारिक शरीर के भी) परमाणु चक्राकार रुप में अवस्थित हैं, जिनमें आत्म चेतना की धारा चक्राकार रूप में घूमती हुई प्रवाहित होती है। इसीलिए यहाँ आत्मचेतना की धारा विशेष बलवती हो गई है। कुछ योग ग्रन्थों में इन्हें कमल या पद्म नाम से भी अभिहित किया गया है। इनका मार्ग सुषम्ना के मध्य में होता हुआ गया है जिसका मूल अथवा प्रवेश द्वारा सुषुम्ना का निचला सिरा (गुदा स्थान पर जहाँ रीढ की हड्डी का अन्त है उस सिरे पर ) मूलाबार चक्र में है और इसका शीर्ष कपाल में (कपाल का मध्य भाग जहाँ ब्रह्मरंध्र है) सहस्त्रार चक्र अथवा ज्ञान केन्द्र में अवस्थित है। अन्तर्यात्रा से मेरा अभिप्राय इन्हीं चैतन्य केन्द्रो चक्रों अथवा कमलों को जो अभी तक सुषुप्त अवस्था में पडे हुए हैं, जागृत करने से है। यह कार्य प्राणशक्ति से संपन्न होता है, प्राणशक्ति द्वारा इन्हें जागृत किया जाता है। अब मैं आप को इन चैतन्य केन्द्रों का परिचय दे रहा हूँ । योगशास्त्रों में विभिन्न अपेक्षाओं से इनकी संख्याएँ भिन्न-भिन्न दी गई हैं, कहीं छह चक्र बताये गये तो कहीं सात, कहीं नौ तो कहीं हजार तक की संख्या बता दी गई है। लेकिन मैं Jain Education International शंका के विचित्र भूत से ही जीवन और जगत दोनों ही हलाहल हों जाते हैं। For Private & Personal Use Only ३३५ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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