Book Title: Dharmpariksha Ras
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown
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शेषनाग नागें ॥॥ हिज पनीया सांसे सह, प्रणमे वारोवार ॥ नाव जगति || करतां घणी, कलना न पमी लगार ॥ ए ॥ विप्र एक बोल्यो तिहां, सघला दीसो मूढ ॥ प्रणति करो जो तमे घणी, गुण नवी जाणो गूढ ॥ १० ॥ विष्णु रूप जग ए नहीं, शंख चक्र नवी पास ॥ ईश्वरनुं रूप केम कहो, त्रिशुल त्रिलोचन तास ॥११॥ चार वेद ब्रह्मा मुखे, श्रझानी तुमे लोक ॥ शुज शणगारो देखीया, काष्ठ उपाडे थोक ॥१॥
ढाल पांचमी. श्रा चित्रशाली था सुख सज्यारे, जो मन माने तो करो लजारे-ए देशी. अकल सरूपी दीसे डे एहरे, करीने विचार पूढगुं देहरे ॥ साच जूठनुं पारखं| कीजेरे, नहींतर एउने देशोटो दीजेरे ॥१॥ ब्राह्मण सघला बोल्या वाणीरे, कवण | नगरीथी आव्या जाणीरे ॥ कवण जातिना लो तुमे नारे, किण कारण श्राव्या रूप|| बनारे ॥२॥ कवण धरम करो डो साररे, कवण शास्त्र जएया गुण धाररे ॥ वाद | करो अमशुं निरधाररे, तो श्रम उपजे हरख अपाररे ॥३॥ मनोवेग कहे सांजलो विप्ररे, अमे बीए कबामी दीप्ररे॥ वाद कहो केम कीजे तुमशुरे, तमे सहु श्राव्या | मलीने श्रमशुंरे ॥४॥न्याय पुराणनी नवी जाणुं वातोरे, धरमाधरमनी न बुर्छ तांतोरे॥

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